अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥42॥
अथवा-या; बहुना–विस्तृत; एतेन–इसके द्वारा; किम्-क्या; ज्ञातेन-तब-तुम्हारे जानने योग्य; अर्जुन-अर्जुन; विष्टभ्य–व्याप्त होना और रक्षा करना; अहम्-मैं; इदम्-इस; कृत्स्नम् सम्पूर्ण; एक-एक; अंशेन–अंश; स्थित:-स्थित हूँ; जगत्-सृष्टि में।
BG 10.42: हे अर्जुन! इस प्रकार के विस्तृत ज्ञान की क्या आवश्यकता हैं। केवल इतना समझ लो कि मैं अपने एक अंश मात्र से सकल सृष्टि में व्याप्त होकर उसे धारण करता हूँ।
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श्रीकृष्ण का उपर्युक्त कथन यह इंगित करता है कि उन्होंने प्रश्न का उत्तर पहले ही दे दिया है। अब वह स्वेच्छानुसार कुछ उल्लेखनीय तथ्य बताना चाहते हैं। अपने तेजस्व का अद्भुत रूप प्रकट करने के पश्चात वे कहते हैं कि अपनी महिमा के संबंध में उन्होंने जो कुछ वर्णन किया उन सबसे उनकी अनन्त महिमा के महत्व को आँका नहीं जा सकता क्योंकि अनन्त ब्रह्माण्डों की समस्त सृष्टि उनके एक अंश में स्थित है। वे यहाँ पर अपने अंश का उल्लेख क्यों कर रहे हैं?
इसका कारण है कि समस्त असंख्य ब्रह्माण्डों में रचित सारी भौतिक सृष्टियाँ भगवान का केवल एक चौथाई अंश हैं। शेष तीन चौथाई आध्यात्मिक अभिव्यक्तियाँ हैं।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।
(पुरुष सूक्तम् मंत्र-3)
"भौतिक शक्ति से निर्मित अस्थायी संसार पुरुषोत्तम भगवान का केवल एक अंश है। अन्य तीन अंश उनके नित्य लोक हैं जो जन्म और मृत्यु के आभास से परे हैं।"
यह अत्यंत रोचक विषय है कि श्रीकृष्ण इस संसार में अर्जुन के सम्मुख खड़े हैं फिर भी वे यह प्रकट करते हैं कि समस्त संसार उनके स्वरूप का एक अंश है। यह गणेश और भगवान शिव की कथा के समान है। एक बार नारद मुनि ने भगवान शिव को एक विशेष फल दिया। भगवान शिव के दो पुत्र कार्तिकेय और गणेश उनसे उस फल की माँग करने लगे। भगवान शिव ने सोचा कि यदि वह किसी एक पुत्र को फल देते हैं तब दूसरा पुत्र सोचेगा कि उनके पिता पक्षपाती हैं। इसलिए भगवान शिव ने दोनों पुत्रों के लिए प्रतियोगिता की घोषणा की कि जो भी पूरे ब्रह्माण्ड की परिक्रमा पहले करके लौटेगा, फल उसे मिलेगा।
यह सुनकर कार्तिकेय ने तत्काल ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करना आरम्भ कर दी। वह बलिष्ठ और शक्तिशाली था और उसने इसका लाभ उठाना चाहा। उसकी अपेक्षा गणेश मोटे शरीर वाले थे और वह अपने भाई के साथ प्रतिस्पर्धा करने में स्वयं को असहाय मानते थे। इसलिए गणेश ने बुद्धि का सदुपयोग करने का निश्चय किया। भगवान शिव और पार्वती वहीं खड़े थे। गणेश ने उनकी तीन बार परिक्रमा की और घोषणा की-“पिताजी मैंने आपकी आज्ञा का पालन कर लिया कृपया मुझे फल प्रदान करें।" भगवान शिव ने कहा-"तुमने ब्रह्माण्ड की परिक्रमा कैसे कर ली तुम तो अब तक हमारे पास खड़े थे।" गणेश ने कहा-"पिताजी आप भगवान हैं। समस्त ब्रह्माण्ड आपके भीतर विद्यमान हैं।" भगवान शिव को इससे सहमत होना पड़ा कि उनका पुत्र गणेश बुद्धिमान है और वास्तव में उसने प्रतियोगिता में विजय प्राप्त की है।
जिस प्रकार भगवान शिव एक स्थान पर खड़े थे और फिर भी सारा संसार उनमें समाविष्ट था उसी प्रकार समान रूप से श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि असंख्य भौतिक ब्रह्माण्डों से निर्मित सृष्टि उनके स्वरूप के एक अंश के रूप में उनमें स्थित है।