Bhagavad Gita: Chapter 13, Verse 6

महाभूतान्यहङ्ककारो बुद्धिरव्यक्त मेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥6॥

महा-भूतानि–पंच महातत्त्व; अहडकार:-अभिमान; बुद्धिः-बुद्धि; अव्यक्तम्-अप्रकट मौलिक पदार्थ; एव–वास्तव में; च-भी; इन्द्रियाणि-इन्द्रियाँ; दश-एकम्-ग्यारह; च-भी; पञ्च–पाँच; च-भी; इन्द्रिय-गो-चराः-इन्द्रियों के विषय;

Translation

BG 13.6: कर्म क्षेत्र पाँच महातत्त्वों-अहंकार, बुद्धि और अव्यक्त मूल तत्त्व, ग्यारह इन्द्रियों (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियों और मन) और इन्द्रियों के पाँच विषयों से निर्मित है।

Commentary

कर्म क्षेत्र का निर्माण करने वाले चौबीस तत्त्व-पंचमहाभूत (पाँच महातत्त्व-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), पाँच-तन्मात्राएँ (पांच इन्द्रिय विषय-रस, स्पर्श, गंध, रूप और शब्द) पाँच कामेन्द्रियाँ (वाक्, हस्त, पांव, लिंग, गुदा), पाँच ज्ञानन्द्रियाँ (कान, नेत्र, जिह्वा, त्वचा और नासिका) मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति (प्राकृत शक्ति के मूल तत्त्व) सम्मिलित हैं। यहाँ श्रीकृष्ण ने 'दशैकं' शब्द जिसका अर्थ 'दस और एक' का प्रयोग ग्यारह इन्द्रियों की संख्या दर्शाने के लिए किया है। इनमें वे मन को भी पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों के साथ सम्मिलित करते हैं। इससे पहले 10वें अध्याय के 22वें श्लोक में उन्होंने उल्लेख किया था कि वे इन्द्रियों में 'मन' हैं। कोई भी आश्चर्य में पड़ सकता है कि पाँच इन्द्रिय विषयों को कर्म क्षेत्र में क्यों सम्मिलित किया गया है? जबकि ये शरीर के बाहर रहते हैं। इसका कारण यह है कि मन इन्द्रिय विषयों के चिन्तन में व्यस्त रहता है और ये पाँच इन्द्रिय विषय सूक्ष्म रूप से मन में रहते हैं इसलिए जब हम नींद में स्वप्न देखते हैं तो स्वप्नावस्था में हम देखते, सुनते और अनुभव करते हैं तथा सूंघते हैं। जबकि हमारा स्थूल शरीर बिस्तर पर विश्राम कर रहा होता है। इससे ज्ञात होता है कि इन्द्रियों के स्थूल अंग भी सूक्ष्म रूप से मन में व्याप्त रहते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण यहाँ इन्हें भी सम्मिलित करते हैं क्योंकि वे आत्मा के लिए पूर्ण कर्मक्षेत्र के कार्यकलापों का वर्णन कर रहे हैं। कुछ अन्य धर्मग्रंथ शरीर का विश्लेषण करते समय इन्द्रियों के पाँच विषयों को सम्मिलित नहीं करते। इनके स्थान पर इनमें पाँच प्राण (जीवन शक्ति) को सम्मिलित किया गया है। यह केवल श्रेणीकरण से संबंधित विषय है न कि दार्शनिक अन्तर का। 

इस ज्ञान को भी आवरणों के रूप में समझाया गया है। शरीर के क्षेत्र में पाँच कोष (आवरण) हैं जो आत्मा में निहित हैं और इसे आच्छादित करते हैं। 

1. अनन्यमय कोषः यह स्थूल आवरण है। यह पाँच महातत्त्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) से बना है।

 2. प्राणमय कोषः यह जीवन शक्ति का आवरण है। यह पाँच प्रकार की जीवन दायिनी शक्तियों (प्राण, आपान व्यान, समान, उदान) से निर्मित है। 

3. मनोमय कोषः यह मानसिक आवरण है। यह मन और पाँच कर्मेन्द्रियों (वाक्, हस्त, पाँव, लिंग और गुदा) से बना है। 

4. विज्ञानमय कोषः यह बुद्धि का आवरण है। यह कोष बुद्धि और पाँच ज्ञानेन्द्रियों (कान, आँख, जिह्वा, त्वचा और नासिका) से बना है। 

5. आनन्दमय कोषः यह आनंद का आवरण है जो कि अहंकार से बना है जो हमारी पहचान शरीर, मन और बुद्धि तंत्र के क्षणिक आनंद के बोध के साथ कराता है।

Swami Mukundananda

13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग

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