प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥7॥
प्रवृत्तिम्-उचित कर्म; च-और; निवृत्तिम्-अनुचित कर्म करना; च-और; जना:-लोग; न-नहीं; विदुः-समझते हैं; आसुराः-आसुरी गुण से युक्त; न-न हीं; शौचम्-पवित्रता; न-न तो; अपि-भी; च-और; आचारः-आचरण; न-न ही; सत्यम्-सत्यता; तेषु-उनमें; विद्यते-होता है।
BG 16.7: वे जो आसुरी गुणों से युक्त होते हैं वे यह समझ नहीं पाते कि उचित और अनुचित कर्म क्या हैं। इसलिए उनमें न तो पवित्रता, न ही सदाचरण और न ही सत्यता पायी जाती है।
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धर्म में आचार संहिता निहित होती है जो मनुष्य के शुद्धिकरण और जीवों के सामान्य कल्याण के अनुकूल होती है। अधर्म में ऐसे निषेध कार्य सम्मिलित होते हैं जो पतन की ओर ले जाते हैं और समाज की क्षति का कारण बनते हैं। इसलिए इसके प्रभुत्व में आने वाले लोग उचित और अनुचित कर्म क्या हैं? के संबंध में सदैव विचलित रहते हैं। इसका एक विशिष्ट उदाहरण पाश्चात्य दर्शन की वर्तमान विचारधारा है। पुनर्जागरण के पश्चात विकसित विभिन्न विचारधाराओं जैसे ज्ञान का युग, मानवतावाद अनुभववाद, समाजवाद और संदेहवाद और पाश्चात्य दर्शन के वर्तमान युग को 'उत्तर आधुनिकतावाद' का नाम दिया गया है। उत्तर आधुनिकतावाद का प्रचलित मत यह है कि संसार में कुछ भी परम सत्य नहीं है। बहुसंख्यक लोगों ने इस संभावना को अस्वीकृत कर दिया है कि विश्व में कोई भी ऐसी वस्तु परम सत्य है जिसका कोई अस्तित्व है। 'सभी संबंध सूचक है' यह उत्तर आधुनिकतावाद के युग के दर्शन का नारा बन चुका है। हम प्रायः ऐसी उक्ति सुनते हैं कि “यह तुम्हारे लिए सत्य हो सकता है, लेकिन मेरे लिए सत्य नहीं हैं।" सत्य को एक व्यक्तिगत प्राथमिकता के रूप में या ऐसी अनुभूति के रूप में देखा जाता है जो मनुष्य की निजी सीमाओं से परे प्रसारित नहीं हो सकता है। यह दृष्टिकोण नैतिकता से संबंधित विषयों पर अत्यंत प्रभाव डालता है जो उचित और अनुचित आचरण से संबंधित प्रश्न को सुलझाते हैं। यदि संसार में पूर्ण सत्य के रूप में कुछ भी नहीं है तब संसार में किसी विषय के संबंध में भी अंतिम नैतिक औचित्य और अनौचित्य नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में लोगों का यह कहना तर्कसंगत प्रतीत होता है कि "यह तुम्हारे लिए उचित हो सकता है किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि यह मेरे लिए भी उचित है।" ऐसा विचार कई लोगों को अति आकर्षक लग सकता है किन्तु यदि इसकी तार्किक चरम सीमा को देखा जाए तब यह निरर्थक और विनाशकारी सिद्ध होता है। उदाहरणार्थ क्या यह उचित है कि यदि कोई लाल बत्ती होने पर यातायात (ट्रैफिक) लाईट की उपेक्षा करे? ऐसा करने वाला व्यक्ति इसे ठीक मानकर अन्य लोगों के जीवन को जोखिम में डाल देगा। क्या इसे उचित माना जा सकता है? यदि कोई व्यक्ति घनी आबादी वाले क्षेत्र में लोगों को अपना शत्रु समझ कर आत्मघाती बम विस्फोट अभियान में सम्मिलित हो जाए भले ही उसकी बुद्धि भ्रष्ट करके उसे यह समझाया गया हो कि वह जो कर रहा है वह उचित है लेकिन क्या समाज और मानवता की दृष्टि से इसे उचित कार्य माना जा सकता है? यदि इस प्रकार से कोई भी ऐसा विचार या क्रिया चरम सत्य नहीं है तब भी वास्तव में कोई यह नहीं कह सकता है कि 'उसे यह करना चाहिए' या 'उसे यह नहीं करना चाहिए।' अधिकांश लोग यह कह सकते हैं-'अनेक लोग इस काम को अच्छा नहीं समझते।' सापेक्षवादियों के दृष्टिकोण के अनुसार कोई यह प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकता है कि 'तुम्हारे लिए यह उचित हो सकता है लेकिन हमारे लिए निश्चित रूप से यह उचित नहीं है।' नैतिकता के दृष्टिकोण से अटल सत्य के विश्वास का उल्लंघन करने के विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि आसुरी प्रकृति वाले लोग क्या उचित है अथवा क्या अनुचित? के संबंध में विचलित रहते हैं और इस प्रकार से उनमें न तो शुद्धता, न सत्य और न ही सदाचरण पाए जाते हैं। श्रीकृष्ण अगले श्लोक में ऐसे लोगों के प्रमुख विचारों का वर्णन करेंगे।