श्रीभगवानुवाच।
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वय॑मकीर्तिकरमर्जुन॥2॥
श्रीभगवान्-उवाच-परमात्मा श्रीकृष्ण ने कहा; कुत:-कहाँ से; त्वा-तुमको; कश्मलम्-मोह, अज्ञान; इदम्-यह; विषमे इस संकटकाल में; समुपस्थितम्-उत्पन्न हुआ; अनार्य-अशिष्ट जन; जुष्टम्-सद्-आचरण योग्य; अस्वय॑म्-उच्च लोकों की ओर न ले जाने वाला; अकीर्तिकरम्-अपयश का कारण; अर्जुन-अर्जुन।
BG 2.2: परमात्मा श्रीकृष्ण ने कहाः मेरे प्रिय अर्जुन! इस संकट की घड़ी में तुम्हारे भीतर यह विमोह कैसे उत्पन्न हुआ? यह सम्माननीय लोगों के अनुकूल नहीं है। इससे उच्च लोकों की प्राप्ति नहीं होती अपितु अपयश प्राप्त होता है।
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हमारे पवित्र ग्रन्थों में 'आर्य' शब्द का प्रयोग किसी प्रजाति या जाति समूह के लिए नहीं किया गया है। मनु स्मृति में आर्य शब्द की परिभाषा एक परिपक्व और सभ्य मानव के रूप में की गई है। आर्य '(भद्र पुरूष)' जैसा संबोधन सबके कल्याण की भावना की ओर संकेत करता है। वैदिक धर्म ग्रन्थों का उद्देश्य मानव को सभी प्रकार से श्रेष्ठ 'आर्य' बनने का उपदेश देना है। श्रीकृष्ण अर्जुन की वर्तमान मानसिक स्थिति को इन आदर्शों के प्रतिकूल पाते हैं और इसलिए उसकी व्याकुलता को ध्यान में रखते हुए वह उसे फटकारते हुए समझाते हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में इस आदर्शवादी अवस्था में कैसे रहा जा सकता है। भगवद्गीता या 'भगवान की दिव्य वाणी' वास्तव में यहीं से आरम्भ होती है क्योंकि श्रीकृष्ण, जो अभी तक शांत थे, अब इस श्लोक से बोलना आरम्भ करते हैं। परमात्मा पहले अर्जुन के भीतर ज्ञान प्राप्त करने की क्षुधा उत्पन्न करते हैं।
ऐसा करने के लिए वह यह तर्क देते हैं कि उत्तम पुरुष के लिए इस प्रकार के भ्रम की स्थिति में रहना अपमानजनक और सर्वथा अनुचित है। इसके बाद वे अर्जुन को अवगत करवाते हैं कि मिथ्या-मोह के परिणामों से पीड़ा, अपयश तथा जीवन में असफलता मिलती है और आत्मा का पतन होता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को सांत्वना देने के बजाय उसकी वर्तमान मनोदशा को देखते हुए उसे और अधिक व्याकुल करना चाह रहे हैं। जब हम व्याकुल होते हैं तब हमें दुःख की अनुभूति होती है क्योंकि यह आत्मा की वास्तविक स्थिति नहीं है। यह असंतोष की अनुभूति यदि उचित दिशा की अग्रसर होती है तब वह वास्तविक ज्ञान की खोज में प्रेरक सिद्ध होती है। संदेह का उचित निवारण मनुष्य को गूढ ज्ञान प्राप्त करने में सहायता करता है। इसलिए भगवान कभी-कभी जानबूझकर मनुष्य को कठिनाई में डालते हैं ताकि वह अपनी उलझन को सुलझाने के लिए ज्ञान की खोज करने में विवश हो जाए और जब उसके संदेह का पूरी तरह से निवारण हो जाता है तब वह मनुष्य ज्ञान की उच्चावस्था को प्राप्त कर लेता है।