आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥29॥
आश्चर्यवत्-आश्चर्य के रूप में; पश्यति-देखता है; कश्चित्-कोई; एनम् इस आत्मा को; आश्चर्यवत्-आश्चर्य के समान; वदति-कहता है; तथा जिस प्रकार; एव–वास्तव में; च-भी; अन्यः-दूसरा; आश्चर्यवत्-आश्चर्यः च-और; एनम्-इस आत्मा को; अन्यः-दूसरा; शृणोति-सुनता है; श्रृत्वा-सुनकर; अपि-भी; एनम्-इस आत्मा को; वेद-जानता है; न कभी नहीं; च-तथा; एव-नि:संदेह; कश्चित्-कुछ।
BG 2.29: कुछ लोग आत्मा को एक आश्चर्य के रूप में देखते हैं, कुछ लोग इसे आश्चर्य बताते हैं और कुछ इसे आश्चर्य के रूप मे सुनते हैं जबकि अन्य लोग इसके विषय में सुनकर भी कुछ समझ नहीं पाते।
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यह संपूर्ण संसार आश्चर्य है क्योंकि एक अणु से लेकर विशाल आकाश गंगाएँ भगवान की अद्भुत कृतियाँ हैं। एक छोटे-से पुष्प की संरचना, सुगंध और सुन्दरता भी अपने आप में एक आश्चर्य है। परम-पिता-परमात्मा स्वयं सबसे बड़ा आश्चर्य है।
यह कहा जाता है कि भगवान विष्णु दस हजार सिर वाले दिव्य सर्प अनन्त शेष पर निवास करते हैं और वह सृष्टि के आरम्भ से भगवान की महिमा का निरन्तर गुणगान कर रहा है और अभी तक उसे पूरा नहीं कर पाया है। चूंकि आत्मा भगवान का अंश है अतः यह संसार के किसी भी पदार्थ से अधिक आश्चर्यजनक है क्योंकि इसका भौतिक अस्तित्व अनुभवातीत एवं दुर्बोध है। जिस प्रकार भगवान दिव्य हैं उसी प्रकार आत्मा भी उनका अंश होने के कारण दिव्य है।
इसी कारण आत्मा को मात्र बुद्धि से समझना संभव नहीं है क्योंकि आत्मा के अस्तित्व और प्रकृति का ज्ञान अत्यंत कठिन है। कठोपनिषद् में वर्णन किया गया है।
श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः श्रृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः। आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः।।
(कठोपनिषद्-1.2.7)
"एक आत्मज्ञानी गुरु को पाना अत्यंत दुर्लभ है। आत्म ज्ञान के विषय में ऐसे गुरु का उपदेश सुनने का अवसर भी बहुत कम मिलता है। यदि परम सौभाग्य से ऐसा अवसर मिलता भी है तब ऐसे शिष्य बहुत कम मिलते हैं जो आत्मा के विषय को समझ सकें।"
ऐसे में जब उनके अथक प्रयासों के पश्चात् भी बहुसंख्यक लोग आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने या इसको समझने के इच्छुक न हो तब सिद्ध पुरुषों को कभी निराश नहीं होना चाहिए।