यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥46॥
यावान्–जितना भी; अर्थः-प्रयोजन; उदपाने-जलकूप में; सर्वतः-सभी प्रकार से; सम्प्लुत-उदके-विशाल जलाशय में; तावान्–उसी तरह; सर्वेषु-समस्त; वेदेषु-वेदों में; ब्राह्मणस्य–परम सत्य को जानने वाला; विजानतः-पूर्ण ज्ञानी।।
BG 2.46: जैसे एक छोटे जलकूप का समस्त कार्य सभी प्रकार से विशाल जलाशय द्वारा तत्काल पूर्ण हो जाता है, उसी प्रकार परम सत्य को जानने वाले वेदों के सभी प्रयोजन को पूर्ण करते हैं।
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वेदों में एक लाख मंत्रा हैं जिनमें विभिन्न धार्मिक विधि विधानों, प्रार्थनाओं, अनुष्ठानों, और दिव्य ज्ञान का वर्णन किया गया है। इन सबका एक ही उद्देश्य आत्मा को परमात्मा के साथ एकीकृत करने में सहायता करना है।
वासुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखाः।
वासुदेवपरा योगा वासुदेवपराः क्रियाः।।
सांख्य योग वासुदेवपरं ज्ञानं वासुदेवपरं तपः।
वासुदेवपरो धर्मो वासुदेवपरा गतिः।।
(श्रीमद्भागवतम्-1.2.28-29)
"सभी वैदिक मंत्रों, धार्मिक विधि-विधानों, आध्यात्मिक क्रियाओं, यज्ञ, ज्ञान और कर्तव्यों का निर्वहन करने का लक्ष्य भगवान के दिव्य चरणों में प्रीति उत्पन्न करने में सहायता करना है।" जिस प्रकार औषधि की टिकिया पर प्रायः शक्कर का लेप लगा होता है ताकि वह मधुर लगे, उसी प्रकार वेद भौतिक प्रवृत्ति वाले मनुष्यों को सांसारिक प्रलोभनों की ओर आकर्षित करते हैं। इनका उद्देश्य मनुष्य को धीरे-धीरे सांसारिक बंधनों से विरक्त कर उसे भगवान में अनुरक्त करने में सहायता करना है। इस प्रकार जब किसी मनुष्य का मन भगवान में लीन हो जाता है तब स्वतः ही सभी वैदिक मंत्रों का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। श्रीकृष्ण द्वारा उद्धव को दिया गया उपदेश
आज्ञायैवं गुणान् दोषान् मयाऽऽदिष्टानपि स्वकान्।
धर्मान् सन्त्यज्य यः सर्वान् मां भजेत स सत्तमः।।
(श्रीमद्भागवतम्-11.11.32)
"वेदों में मनुष्य के लिए सामाजिक और धार्मिक विधि विधानों से संबंधित विभिन्न कर्त्तव्य निर्धारित किए गए हैं लेकिन वे मनुष्य जो इनके अंतर्निहित अभिप्राय को समझ लेते हैं और उनके मध्यवर्ती उपदेशों का त्याग करते हैं तथा पूर्ण समर्पण भाव से मेरी भक्ति और सेवा में तल्लीन रहते हैं, उन्हें मैं अपना परम भक्त मानता हूँ।"