नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥8॥
नियतम् निर्धारित; कुरु-निष्पादन करो; कर्म-वैदिक कर्तव्यः त्वम्-तुम; कर्म-कर्म करना; ज्यायः-श्रेष्ठ; हि-निश्चय ही; अकर्मणः-निष्क्रिय रहने की अपेक्षा; शरीर-शरीर का; यात्रा-पालन पोषण, अपि-भी; च-भी; ते तुम्हारा; प्रसिद्ध्येत्-संभव न होना; अकर्मण:-निष्क्रिय।
BG 3.8: इसलिए तुम्हें निर्धारित वैदिक कर्म करने चाहिए क्योंकि निष्क्रिय रहने से कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म का त्याग करने से तुम्हारे शरीर का भरण पोषण भी संभव नहीं होगा।
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जब तक मन और बुद्धि भगवान में तल्लीन होने की अवस्था तक न पहुँचे तब तक कर्त्तव्य का पालन करने की दृष्टि से किया गया शारीरिक कार्य अन्त:करण को शुद्ध करने में सहायक होता है। इसलिए वेदों में मनुष्यों के लिए अपने मन और इन्द्रियों पर संयम रखने के लिए कुछ कर्तव्य निश्चित किए गए हैं। आलस्य को आध्यात्मिक मार्ग में अवरोध बताया गया है।
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।
"आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है और यह घातक शत्रु, उसके शरीर में ही निवास करता है।" कर्म मनुष्य का विश्वस्त मित्र है और उसे निश्चित रूप से अधोपतन से बचाता है। मुख्य शारीरिक कार्य जैसे भोजन ग्रहण करना, स्नान करना तथा शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए कर्म करना अनिवार्य होता है। इन अनिवार्य कर्मों को नित्यकर्म कहा जाता है। शरीर को सुचारु रूप से क्रियाशील रखने वाले इन कार्यों की उपेक्षा करना उचित नहीं है अपितु ये आलसी होने का संकेत है जो मन और शरीर दोनों को क्षीण और दुर्बल करता है। दूसरी ओर शरीर की देखभाल और पोषण करना आध्यात्मिकता के मार्ग में सहायक है। इस प्रकार अकर्मण्यता न तो भौतिक और न ही आध्यात्मिक उपलब्धि की साधिका है। अपनी आत्मा के उत्थान के लिए हमें अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। वे हमारे मन और बुद्धि को उन्नत और पवित्र करने में सहायता करते हैं।