अर्जुन उवाच।
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥1॥
अर्जुन-उवाच-अर्जुन ने कहा; संन्यासम् वैराग्य; कर्मणाम् कर्मों का; कृष्ण-श्रीकृष्णः पुनः-फिर; योगम्-कर्मयोग; च-भी; शंससि–प्रशंसा करते हो; यत्-जो; श्रेयः-अधिक लाभदायक; एतयो:-इन दोनों में से; एकम्-एक; तत्-वह; मे मेरे लिए; ब्रूहि-कृपया बताएँ; सुनिश्चितम् निश्चित रूप से;
BG 5.1: अर्जुन ने कहा-हे कृष्ण! पहले आपने कर्म संन्यास की सराहना की और फिर आपने मुझे भक्ति युक्त कर्मयोग का पालन करने का उपदेश भी दिया। कृपापूर्वक अब मुझे निश्चित रूप से बताएँ कि इन दोनों में से कौन सा मार्ग अधिक लाभदायक है।
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यह अर्जुन के सोलह प्रश्नों में से पाँचवाँ प्रश्न है। श्रीकृष्ण कर्म के परित्याग और भक्तिपूर्वक कर्म-दोनों की सराहना करते हैं। अर्जुन इन विरोधाभासी उपदेशों को सुनकर विचलित हो जाता है और वह यह जानना चाहता है कि इन दोनों में से कौन सा मार्ग उसके लिए अधिक लाभदायक है। इस प्रश्न के प्रसंग की समीक्षा की जानी आवश्यक है।
प्रथम अध्याय में अर्जुन के विषाद का वर्णन किया गया था जिसके परिणामस्वरूप श्रीकृष्ण ने उसे आध्यात्मिक ज्ञान देना आरम्भ किया। दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आत्मा के विज्ञान का बोध कराया और यह समझाया कि आत्मा अविनाशी है इसलिए युद्ध में कोई नहीं मरेगा। अतः शोक करना मूर्खता है। तत्पश्चात् वे अर्जुन को स्मरण कराते हैं कि एक योद्धा के रूप में उसका कर्त्तव्य धर्म के पक्ष में युद्ध करना है। चूंकि कर्म मनुष्य को कर्मों के प्रतिफल से बांधते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण उसे अपने कर्म-फल भगवान को अर्पित करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं ताकि उसका कर्म कर्मयोग बन जाए या वह 'कर्म द्वारा भगवान के साथ एकीकृत' हो सके।
तीसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने यह स्पष्ट किया कि मनुष्य के लिए अपने कर्तव्यों का पालन करना अनिवार्य है क्योंकि ये मन को शुद्ध करने में सहायता प्रदान करते हैं। किन्तु उन्होंने यह भी कहा कि जिस मनुष्य ने पहले ही अंत:करण को शुद्ध कर लिया है उसके लिए किसी प्रकार के सामाजिक दायित्वों का पालन आवश्यक नहीं होता (भगवद्गीता-3:13)।
चौथे अध्याय में भगवान ने विभिन्न प्रकार के यज्ञों, वे कार्य जिन्हें भगवान के सुख के लिए सम्पन्न किया जाता है, की व्याख्या की थी। उन्होंने यह निष्कर्ष दिया कि ज्ञान युक्त होकर सम्पन्न किए गए यज्ञ कर्मकाण्डों से श्रेष्ठ होते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि सभी यज्ञों का सार भगवान से संबंध स्थापित करना है। अन्त में भगवद्गीता-4.41 में उन्होंने कर्म संन्यास के सिद्धान्त का वर्णन किया, जिसमें वैदिक कर्मकाण्डों और सामाजिक दायित्वों को त्याग कर मनुष्य शरीर, मन और आत्मा से भगवान की सेवा में तल्लीन हो जाता है।
इन सभी उपदेशों ने अर्जुन को भ्रमित कर दिया। उसने सोंचा कि कर्म का त्याग और कर्मयोग अर्थात् (श्रद्धाभक्ति पूर्ण कार्य) विरोधाभासी प्रवृत्ति के हैं और इन दोनों का एक साथ पालन करना संभव नहीं है। इसलिए वह श्रीकृष्ण के समक्ष संदेह व्यक्त करता है।