सुखमात्यन्तिकं यत्तबुद्धिग्राह्ममतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥21॥
सुखम्-सुख; आत्यन्तिकम्-असीम; यत्-जो; तत्-वह; बुद्धि-बुद्धि द्वारा; ग्राह्मम्-ग्रहण करना; अतीन्द्रियम्-इन्द्रियातीत; वेत्ति-जानता है; यत्र-जिसमें; न कभी नहीं; च और; एव–निश्चय ही; अयम्-वह; स्थितः-स्थित; चलति–विपथ न होना; तत्त्वतः-परम सत्य से;
BG 6.21: योग में चरम आनन्द की अवस्था को समाधि कहते हैं जिसमें मनुष्य असीम दिव्य आनन्द प्राप्त करता है और इसमें स्थित मनुष्य परम सत्य के पथ से विपथ नहीं होता।
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सुख की लालसा करना आत्मा का स्वभाव है। इसकी उत्पत्ति इस यथार्थ से होती है कि हम आनन्द के महासागर भगवान के अणु अंश हैं। वैदिक ग्रंथों में दिए अनेक उदाहरणों द्वारा इसे सिद्ध किया गया है जिनकी व्याख्या पाँचवें अध्याय के 21वें श्लोक में की गयी है। यहाँ अनन्त सुखों के महासागर भगवान के परमानन्दमयी स्वरूप को अभिव्यक्त करने के लिए कुछ और उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं
रसो वै सः। रसँ ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति।
(तैत्तिरीयोपनिषद्-2.7)
"भगवान स्वयं आनन्द है। जीवात्मा उसे पाकर आनन्दमयी हो जाती है।"
"आनन्दमयोऽभ्यासात्"
(ब्रह्मसूत्र-1.1.12)
"भगवान परमानंद का वास्तविक स्वरूप है"
सत्यज्ञानानन्तानन्दमात्रैकरसमूर्तयः।
(श्रीमद्भागवतम्-10.13.54)
"भगवान का दिव्य स्वरूप सत्-चित्-आनन्द से निर्मित है।"
आनंद सिंधु मध्य तव वासा। बिनु जाने कत मरसि पियासा॥
(रामचरितमानस)
"आनन्द के महासागर भगवान, जो तुम्हारे भीतर बैठे हैं उन्हें जाने बिना आनन्द प्राप्ति की तुम्हारी प्यास की तृप्ति कैसे हो सकती है।" हम युगों से पूर्ण आनन्द प्राप्त करना चाह रहे हैं और इसी आनन्द की खोज में हम सब कुछ करते हैं। हालाँकि तृप्ति के विषयों से मन और इन्द्रियों को वास्तविक सुख के छायादार प्रतिबिम्ब की ही अनुभूति होती है। इस प्रकार इन्द्रिय तृप्तियाँ भगवान का असीम सुख पाने के लिए दीर्घ काल से तड़प रही आत्मा को संतुष्ट करने में असफल होती है जब मन भगवान में एकनिष्ठ हो जाता है तब आत्मा अकथनीय और परम आनन्द प्राप्त करती है जोकि इन्द्रियों की परिधि से परे होता है। वैदिक ग्रंथों में योग की इस अवस्था को समाधि कहा जाता हैं। महर्षि पतंजलि ने भी इस प्रकार से कहा है
समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात् ।।
(पंतजलि योग दर्शन-2.45)
"समाधि में सफलता के लिए परमात्मा की शरणागति प्राप्त करो।" समाधि की अवस्था में पूर्ण तृप्ति और संतोष की अनुभूति होती है और आत्मा की कोई इच्छा शेष नहीं रह जाती। इस प्रकार से वह एक क्षण के लिए भी विपथ हुए बिना दृढ़ता से परमसत्य में स्थित हो जाती है।