तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥7॥
तस्मात् इसलिए; सर्वेषु-सब में; कालेषु-कालों में; माम्-मुझको; अनुस्मर-स्मरण करना; युध्य युद्ध करना; च-भी; मयि–मुझमें; अर्पित-समर्पित; मनः-मन, बुद्धि:-बुद्धि; माम्-मुझको; एव-निश्चय ही; एष्यसि–प्राप्त करोगे; असंशयः-सन्देह रहित।
BG 8.7: इसलिए सदा मेरा स्मरण करो और युद्ध लड़ने के अपने कर्त्तव्य का भी पालन करो, अपना मन और बुद्धि मुझे समर्पित करो तब तुम निचित रूप से मुझे पा लोगे, इसमें कोई संदेह नहीं है।
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इस श्लोक की प्रथम पंक्ति भगवद्गीता के उपदेशों का सार है। इसमें हमारे जीवन को दिव्य बनाने की शक्ति निहित है। यह कर्मयोग की परिभाषा को भी संपुटित करता है। श्रीकृष्ण कहते हैं- "अपने मन को मुझमें अनुरक्त रखो और शरीर से अपने सांसारिक कर्तव्यों का पालन करते रहो।" यह उपदेश सभी व्यवसाय के लोगों, डॉक्टर, इंजीनियर, अधिवक्ताओं, गृहणियों पर लागू होता है। विशेष रूप से अर्जुन के प्रकरण में जो एक योद्धा है और युद्ध लड़ना जिसका धर्म है। इसलिए उसे मन भगवान में अनुरक्त कर अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करने का उपदेश दिया गया है। कुछ लोग इस तर्क के आधार पर अपने लौकिक कर्त्तव्यों की उपेक्षा करते हैं कि उन्होंने आध्यात्मिक जीवन धारण कर लिया है। अन्य आध्यात्मिकता के अभ्यास से छुटकारा पाने हेतु सांसारिक कार्य-कलापों में व्यस्त रहने का बहाना करते हैं। लोग यह विश्वास करते हैं कि अध्यात्मवाद और सांसारिक कार्य परस्पर विरोधी हैं लेकिन भगवान मनुष्य को पूरे जीवन में शुद्धिकरण का उपदेश देते हैं।
जब हम कर्मयोग का अभ्यास करते हैं तब सांसारिक कार्य कोई बाधा उत्पन्न नहीं करेंगे क्योंकि उनमें शरीर व्यस्त होता है लेकिन मन भगवान में अनुरक्त होता है। तब ये कार्य किसी को कर्म के नियम में नहीं बाँधेगे। केवल उन्हीं कार्यों के परिणाम कर्मिक होते हैं जिन्हें आसक्ति के साथ क्रियान्वित किया जाता है। ऐसी आसक्ति न होने पर यहाँ तक कि सांसारिक नियम भी किसी को दोषी नहीं ठहरा सकते। उदाहरणार्थ एक व्यक्ति ने किसी अन्य व्यक्ति को मार डाला और उसे न्यायालय में ले जाया गया। न्यायाधीश ने पूछा-'क्या आपने उस व्यक्ति को मारा?' उस व्यक्ति ने उत्तर दिया-'हाँ मान्यवर! इस मामले में किसी प्रकार के साक्ष्य की आवश्यकता नहीं है। मैं स्वीकार करता हूँ कि मैने उस व्यक्ति को मारा।' न्यायाधीश ने कहा 'तुम्हें दण्ड मिलना चाहिए।' 'नहीं मान्यवर! आप मुझे दण्डित नहीं कर सकते' न्यायाधीश ने पूछा क्यों? उस व्यक्ति ने उत्तर दिया-'मेरा उसे मारने का कोई प्रयोजन नहीं था। मैं सड़क पर उचित दिशा में निर्धारित गति सीमा में कार चला रहा था और मेरी दृष्टि सामने की ओर केन्द्रित थी। मेरी कार के ब्रेक, स्टेयरिंग आदि सब कुछ ठीक थे। वह व्यक्ति अचानक सामने आकर मेरी कार से टकरा गया तब उस स्थिति मैं क्या कर सकता था।' यदि आरोपी व्यक्ति का वकील यह सिद्ध कर दे कि उस दुर्घटना में हत्या का कोई इरादा नहीं था तब न्यायाधीश उस व्यक्ति को बिना कोई साधारण दण्ड दिए आरोप मुक्त कर देगा।
उपर्युक्त उदाहरण के अनुसार भौतिक जगत में भी हमें उन कार्यों के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता जिन्हें हम बिना आसक्ति के सम्पन्न करते हैं। उसी प्रकार से कर्म नियम के लिए भी समान सिद्धान्त लागू होता है। इसलिए महाभारत के युद्ध के दौरान श्रीकृष्ण के उपदेशों का अनुसरण करते हुए अर्जुन ने युद्ध क्षेत्र में अपने कर्त्तव्य का निर्वहन किया। युद्ध समाप्त होने पर श्रीकृष्ण ने उल्लेख किया कि अर्जुन ने कोई पाप कर्म संचित नहीं किए। वह कर्म बंधन में तब उलझ गया होता जब वह आसक्ति सहित सांसारिक सुखों और यश प्राप्ति के लिए युद्ध कर रहा होता। चूँकि उसका मन श्रीकृष्ण में अनुरक्त था और इसलिए वह जो कर रहा था वह शून्य को गुना करने जैसा था जिसका तात्पर्य संसार में निस्वार्थ और आसक्ति रहित अपने कर्तव्य का पालन करने से है। अगर हम 10 लाख को शून्य से गुणा करते हैं तब उसका उत्तर शून्य ही होगा।
इस श्लोक में कर्मयोग की अति स्पष्ट व्याख्या की गयी है जिसके अनुसार मन को निरन्तर भगवान के चिन्तन में तल्लीन रखना चाहिए। जिस क्षण मन भगवान को विस्मृत कर देता है उस समय माया की सेना के बड़े-बड़े सेना नायक काम, क्रोध, ईष्या, द्वेष, आदि उस पर आक्रमण कर देते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि मन सदैव भगवान में अनुरक्त रहे। प्रायः लोग कर्मयोगी होने का दावा करते हैं क्योंकि वे कहते हैं कि वे कर्म और योग दोनों का पालन करते हैं। पूरे दिन में अधिकांश समय वे कार्य करते हैं और कुछ क्षणों के लिए योग (भगवान की साधना) करते हैं। किन्तु यह श्रीकृष्ण द्वारा दी गयी कर्मयोग की परिभाषा नहीं है। वे कहते हैं-(1) कार्य करते समय भी मन को भगवान के चिन्तन में लगाया जाना चाहिए। (2) भगवान का स्मरण रुक-रुक कर सविराम नहीं होना चाहिए बल्कि निरन्तर पूरे दिन किया जाना चाहिए। संत कबीर ने अपने प्रसिद्ध दोहे में इसे इस प्रकार से व्यक्त किया है-
सुमिरन की सुधि यों करो, ज्यौं गागर पनिहार।
बोलत डोलत सुरति में, कहे कबीर विचार ।।
भगवान का स्मरण उसी प्रकार से करो, जैसे कि गाँव की महिलाएँ सिर पर रखे मटके का करती हैं। वे परस्पर वार्तालाप करते हुए अपने मार्ग पर आगे बढ़ती जाती हैं लेकिन उनका मन सिर पर उठाए हुए मटके पर केन्द्रित रहता है। श्रीकृष्ण कर्म योग के पालन के परिणामों का वर्णन अगले श्लोक में करेंगे।