अवजानन्ति मां मूढ़ा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥11॥
अवजानन्ति-उपेक्षा करते हैं; माम्-मुझको; मूढाः-अल्प ज्ञानी; मानुषीम्-मनुष्य रूप में; तनुम्–शरीर; आश्रितम्-मानते हुए; परम्-दिव्य; भावम्-व्यक्तित्व को; अजानन्तः-न जानते हुए; मम–मेरा; भूत-प्रत्येक जीव का; महा-ईश्वरम्-परमेश्वर।।
BG 9.11: जब मैं मनुष्य रूप में अवतार लेता हूँ तब मूर्ख लोग मुझे समस्त प्राणियों के परमात्मा के रूप में पहचानने में समर्थ नहीं होते।
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महान आचार्य भी कभी-कभी अपने विद्यार्थियों को झटका देते हुए उन्हें आत्म संतुष्टि की सतही सोच से बाहर निकालने के लिए कड़े शब्दों का प्रयोग करता है ताकि वे गहन चिन्तन की अवस्था को प्राप्त कर सकें। यहाँ श्रीकृष्ण ने 'मूढ़' शब्द जिसका तात्पर्य 'मंदबुद्धि' से है, का प्रयोग उन लोगों का वर्णन करने के लिए किया है जो उनके साकार रूप की दिव्यता को स्वीकार नहीं करते। वे जो यह कहते हैं कि भगवान निराकार है और साकार रूप में प्रकट नहीं हो सकता। वे भगवान के सर्वशक्तिमान और शक्तिशाली होने की परिभाषा का खण्डन करते हैं। भगवान ने विविध रूपों, आकारों और बहुरंगी संसार की सृष्टि का सृजन किया है। यदि भगवान संसार में जीवों की अनगिनत योनियों को उत्पन्न करने का अद्भुत कार्य कर सकते हैं तब फिर क्या वह स्वयं साकार रूप धारण नहीं कर सकते? क्या भगवान यह कहते हैं-'मेरे पास स्वयं को साकार रूप में प्रकट करने की कोई शक्ति नहीं है और इसलिए मैं निराकार ज्योति के रूप में हूँ।' ऐसा कहना कि भगवान साकार रूप धारण नहीं कर सकता, भगवान को अपूर्ण रूप में स्वीकार करना होगा। हम अणु जीवात्माएँ साकार रूप धारण करती हैं। यदि कोई मानता है कि भगवान साकार रूप धारण नहीं कर सकते तब इसका निष्कर्ष यह होगा कि वे मनुष्यों से भी कम शक्तिमान हैं। भगवान पूर्ण और सिद्ध हैं। इसके लिए उनके व्यक्तित्व में दो गुणों साकार और निराकार रूप का होना आवश्यक है। वैदिक ग्रंथों में उल्लेख है-
अपश्यं गोपां अनिपद्यमानमा
(ऋग्वेद-1.22.164 सूक्त 31)
"मैंने अविनाशी भगवान जिसका जन्म ग्वालों के परिवार में हुआ, को बालक रूप में देखा।"
द्विभूजं मौन मुद्राध्यम वन मालिनमीश्वरम्।
(गोपालतापिन्युपनिषद्-1.13)
"मैने भगवान को वन के फूलों की माला पहने और अपने हाथों से बाँसुरी बजाते हुए मनोहर मौन मुद्रा में देखा।"
गूढं परं ब्रह्म मनुष्यलिङ्गम्।।
(श्रीमदभागवतम्-7.15.75)
"गूढ ज्ञान यह है कि भगवान मानव रूप को स्वीकार करते हैं।"
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृतिः।
(श्रीमदभागवतम्-9.23.20)
"उस समय परमात्मा सभी वैभवों के स्वामी मनुष्य के रूप में अवतार लेते हैं।"
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्द विग्रहः।
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम्।।
(ब्रह्मसंहिता-5.1)
इस श्लोक में ब्रह्मा भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करते हुए कहते हैं-"मैं उस भगवान की आराधना करता हूँ जो सत्-चित्-आनन्द है। उनका कोई आदि और अन्त नहीं है और वे सभी कारणों के कारण हैं।" भगवान के साकार रूप के संबंध में हमें यह ध्यान रखना होगा कि वह दिव्य स्वरूप हैं जिसका अर्थ है कि वे लौकिक प्राणियों में पाए जाने वाले सभी प्रकार के दोषों से रहित हैं। भगवान का सत्-चित्-आनन्द स्वरूप है जो दिव्यानन्द से बना है।
अस्यापि देव वपुषो मदनुग्रहस्य
स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि।
(श्रीमद्भागवतम्-10.14.2)
इस श्लोक में ब्रह्मा श्रीकृष्ण से इस प्रकार से प्रार्थना करते हैं-"हे भगवान आपका शरीर पंचमहाभूतों से नहीं बना है। यह दिव्य है और आप स्वेच्छा से साकार रूप में अवतार लेकर मुझ जैसी जीवात्माओं पर कृपा करते हो।"
भगवद्गीता के चौथे अध्याय में श्रीकृष्ण ने कहा है-"यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ और सभी जीवित प्राणियों का स्वामी हूँ तथापि मैं अपनी योगमाया की शक्ति जो मेरा मूल दिव्य स्वरूप है, द्वारा इस संसार में प्रकट होता हूँ।" इसका अर्थ यह है कि भगवान का न केवल साकार रूप है बल्कि वे इस संसार में अवतार के रूप में भी अवतरित होते हैं क्योंकि हम जीवात्माएँ चिरकाल से संसार में जन्म ले रही हैं अतः यह भी संभव है कि जब भगवान अपने पिछले अवतारों में पृथ्वी पर आए उस समय हम भी रहे होंगे। यह भी संभावना है कि हमने उन अवतारों को देखा था। किन्तु उस समय की परिसीमा यह थी कि भगवान का रूप दिव्य था और हमारी आँखें मायिक थीं इसलिए हमने जब उनको अपनी आँखों से देखा लेकिन हम उनके स्वरूप की दिव्यता को पहचान नहीं पाए।
भगवान के दिव्य रूप की प्रकृति ऐसी है कि प्रत्येक व्यक्ति केवल अपनी आत्मिक शक्ति की सीमा तक उनकी दिव्यता का बोध करता है। जो लोग सत्वगुण में प्रवृत होते हैं वे उन्हें देख कर सोचते हैं-" श्रीकृष्ण विशिष्ट मानव हैं, वे सक्षम हैं लेकिन निश्चित रूप से भगवान नहीं हैं।" जब वे रजोगुण के आकर्षण में होते हैं तब भगवान को देखकर कहते हैं-"उनमें कुछ विशेष नहीं हैं। वे हमारे जैसे ही हैं।" तमोगुण के प्रभुत्व में रहने वाले लोग उन्हें देखकर कहते है-“वे अहंकारी, चरित्रहीन और हमसे भी बुरे हैं।" केवल भगवदानुभूत संत ही उन्हें भगवान के रूप में पहचान सकते हैं क्योंकि उन्हें उनकी कृपा से दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है।" इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब वे अवतार लेते हैं उस समय माया के बंधनों में जकड़ी जीवात्माएँ उन्हें पहचान नहीं पातीं।