न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेनवा ॥32॥
येषामर्थे काक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।॥33॥
न न तो; काङ्क्षे इच्छा करता हूँ; विजयं-विजय; कृष्ण-कृष्ण; न न ही; च-उसी प्रकार से; राज्यम-राज्य; सुखानि-सुख; च-भी; किम्-क्या; राज्येन-राज्य द्वारा; गोविन्द-श्रीकृष्ण, जो इन्द्रियों को सुख प्रदान करते हैं और जो गायों से प्रेम करते हैं; भोगैः-सुख; जीवितेन-जीवन; वा-अथवा; येषाम्-जिनके; अर्थ-लिए; काङ्क्षितम्-इच्छित है; न:-हमारे द्वारा; राज्यम्-राज्य; भोगा:-सुख; सुखानि;-सुख; च-भी; ते–वे; इमे-ये; अवस्थिता:-स्थित; युद्धे युद्धभूमि में; प्राणान्–जीवन को; त्यक्त्वा-त्याग कर; धनानि–धन; च-भी;
BG 1.32-33: हे कृष्ण! मुझे विजय, राज्य और इससे प्राप्त होने वाला सुख नहीं चाहिए। ऐसे राज्य सुख या अपने जीवन से क्या लाभ प्राप्त हो सकता है क्योंकि जिन लोगों के लिए हम यह सब चाहते हैं, वे सब इस युद्धभूमि में हमारे समक्ष खड़े हैं।
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अर्जुन के मन में यह सत्य जानकर उलझन उत्पन्न हुई कि हत्या करना अपने आप में एक पापपूर्ण कृत्य है और अपने ही स्वजनों को मारना तो और अधिक कुत्सित कार्य है। अर्जुन को यह प्रतीत हुआ कि यदि उसने राज्य प्राप्त करने के लिए इस प्रकार के निर्दयतापूर्ण कार्य किए तब उसे ऐसी विजय से अंततोगत्वा कोई सुख प्राप्त नही होगा और वह इस ख्याति को अपने उन मित्रों और सगे-संबंधियों में बांटने में असमर्थ रहेगा जिन्हे युद्ध में मारकर उसे विजय प्राप्त होगी। यहाँ अर्जुन अनुचित भावों को प्रदर्शित कर रहा है और उसे श्रेष्ठ मान रहा है। सांसारिक भोगों और भौतिक सुख-समृद्धि के प्रति विरक्ति प्रशंसनीय है किन्तु अर्जुन आध्यात्मिक भावों से युक्त नहीं है अपितु उसका मोह करुणा के रूप में उससे छल कर रहा है। शुद्ध मनोभाव, आंतरिक सामंजस्य और संतोष आत्मा को सुख प्रदान करते हैं। यदि अर्जुन की भावनाएँ अलौकिक की होती तब वह संवेदनाओं से ऊपर उठ चुका होता। लेकिन उसके मनोभाव सर्वथा प्रतिकूल हैं क्योंकि वह अपने मन और बुद्धि में असामंजस्य और अपने कर्तव्य पालन के प्रति असंतोष और अपने भीतर गहन दुःख का अनुभव कर रहा है।उस पर हावी संवेदनाओं का प्रभाव यह दर्शाता है कि उसकी करुणा उसके मोह से उत्पन्न हुई हैं।