मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥55॥
मत्-कर्म-कृत्-मेरे प्रति कर्म करना; मत्-परमः-मुझे परम मानते हुए; मत्-भक्त:-मेरी भक्ति में लीन भक्त; सङ्गवर्जितः-आसक्ति रहित; निरः-शत्रुतारहित; सर्व-भूतेषु-समस्त जीवों में; यः-जो; सः-वह; माम्-मुझको; एति–प्राप्त करता है; पाण्डव-पाण्डु पुत्र, अर्जुन।
BG 11.55: वे जो मेरे प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, जो मुझ पर ही भरोसा करते हैं, आसक्ति रहित रहते हैं और किसी भी प्राणी से द्वेष नहीं रखते। ऐसे भक्त निश्चित रूप से मुझे प्राप्त करते हैं।
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नौंवें अध्याय के अंत में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि अपने मन को मुझमें स्थिर और समर्पित करो। इस प्रकार की भक्ति को बढ़ाने के प्रयोजनार्थ वे अब आगे अपने रहस्यों को प्रकट करना चाहते हैं। पिछले श्लोक में उन्होंने इस पर बल दिया था कि भक्ति का मार्ग ही सर्वोत्कृष्ट है। अब वे अनन्य भक्ति में लीन भक्तों के पाँच लक्षणों को चिह्नांकित कर इस अध्याय का समापन करते हैं।
मेरे प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करने वाले: परम भक्त अपने कार्यों को लौकिकता और आध्यात्मिकता के बीच विभाजित नहीं करते। वे प्रत्येक कार्य भगवान के सुख के लिए करते हैं इसलिए उनका प्रत्येक कर्म भगवान को अर्पित हो जाता है। संत कबीर कहते हैं
जहाँ जहाँ चलूं करुं परिक्रमा, जो जो करुं सो सेवा
जब सोऊँ करुं दंडवत, जानुं देव न दूजा
मैं जब चलता हूँ, सोचता हूँ तब प्रतीत होता है कि मैं भगवान की परिक्रमा और चिन्तन कर रहा हूँ। जब मैं काम करता हूँ, सोचता हूँ तो लगता है कि मैं भगवान की ही सेवा कर रहा हूँ और जब मैं सोता हूँ तब ऐसा प्रतीत होता है कि मैं उनकी पूजा करता हूँ। इस प्रकार से मैं ऐसा कोई अन्य ऐसा कर्म नहीं करता जो उन्हें समर्पित न हो।
मुझ पर आश्रितः जो आध्यात्मिक अभ्यास के बल पर भगवान को पाना चाहते हैं वे पूर्णतया भगवान पर आश्रित नहीं होते क्योंकि भगवान को केवल उनकी कृपा से ही पाया जा सकता है न कि आध्यात्मिक प्रथाओं के पालन से। उसके अनन्य भक्त उन्हें पाने के लिए अपनी भक्ति पर आश्रित नहीं होते। इसके विपरीत उन भक्तों का पूर्ण विश्वास केवल भगवान की कृपा पर होता है और वे अपनी प्रेममयी भक्ति को केवल भगवान की दिव्य कृपा प्राप्त करने के उपाय के रूप में देखते हैं।
वे मेरे प्रिय भक्त होते हैं: भक्त किसी अन्य प्रकार की आध्यात्मिक क्रियाओं जैसे सांख्य ज्ञान को विकसित करने, अष्टांग योग, यज्ञ का अनुष्ठान इत्यादि का पालन करने की आवश्यकता नहीं समझते। इस प्रकार वे केवल अपने प्रियतम भगवान के साथ अपने संबंधों को प्रगाढ़ करते हैं। वे केवल सर्वात्मा भगवान को सभी वस्तुओं और व्यक्तियों में व्याप्त देखते हैं।
वे आसक्ति रहित होते हैः भक्ति के लिए मन की अनुरक्ति आवश्यक होती है। ऐसा तभी संभव है जब मन में संसार के प्रति विरक्ति उत्पन्न हो इसलिए अनन्य भक्त सभी प्रकार की सांसारिक आसक्तियों से रहित होते हैं और मन को केवल भगवान में स्थिर करते हैं।
वे किसी प्राणी से द्वेष नहीं करतेः यदि मन द्वेष से भरा हो तब वह भगवान के प्रति अनन्य भक्ति में लीन नहीं हो सकता। इस प्रकार अनन्य भक्त अपने भीतर किसी प्रकार के विद्वेष को आश्रय नहीं देते। यहाँ तक कि यदि कोई उन्हें कष्ट भी दे या उनका अनिष्ट भी करे। अपितु इसके विपरीत वे यह सोचते हैं कि भगवान सभी प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं और सभी परिस्थितियों को उन्हीं से उत्पन्न मानकर वे अपना अहित करने वालों को भी क्षमा कर देते हैं।