यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेधयं भोजनं तामसप्रियम् ॥10॥
यात-यामम् बासी भोजन; गत-रसम्–स्वादरहित; पूति-दुर्गन्धयुक्त; पर्युषितम्-प्रदूषित; च-भी; यत्-जो; उच्छिष्टम्-जूठा भोजन; भोजन-आहार; अपि-भी; च-और; अमेध्यम्-अशुद्ध; भोजनम-भोजन; तामस-तमोगुणी व्यक्ति को; प्रियम्-प्रिय।
BG 17.10: अधिक पके हुए, बासी, सड़े हुए, प्रदूषित तथा अशुद्ध प्रकार के भोजन तमोगुणी व्यक्तियों के प्रिय भोजन हैं।
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ऐसे पके हुए भोज्य पदार्थ जिन्हें पकाये हुए एक याम (तीन घंटे) से अधिक की अवधि हो गयी हो उन्हें तामसिक भोजन की श्रेणी में रखा जाता है। ऐसे भोज्य पदार्थ जो अशुद्ध, अस्वादिष्ट अथवा दुर्गंध वाले हैं, वे भी इसी श्रेणी में आते हैं। अशुद्ध भोज्य पदार्थों में भी सभी प्रकार के मांस उत्पाद भी सम्मिलित हैं। प्रकृति ने मानव शरीर की रचना शाकाहारी प्राणी के रूप में ही की है। मनुष्यों के दांत मांसभक्षी जानवरों जैसे बड़े नहीं होते और उनका जबड़ा चौड़ा नहीं होता जिससे कि वह मांस को फाड़ सकें। मांसभक्षी जानवरों की आंतें छोटी होती हैं जिसके कारण निरीह तथा मृत जानवर भोज को आगे पहुँचने में बहुत कम समय लगता है जो बहुत तीव्रता से गलता तथा सड़ता है। इसके विपरीत मनुष्यों का पाचन तंत्र बड़ा होता है जो वनस्पतियों से प्राप्त भोजन को धीरे-धीरे तथा उत्तम ढंग से अवशोषित करता है। मांसभक्षी जानवरों का उदर अधिक अम्लीय होता है जो कच्चे मांस को पचाने में सहायता करता है। रोचक बात है कि मांसाहारी जानवरों का स्वेद (पसीना) उनके रोमछिद्रों से नहीं निकलता। इसके स्थान पर वे अपने शरीर का तापमान अपनी जिह्वा से नियंत्रित करते हैं जबकि शाकाहारी जानवर तथा मनुष्य अपने शारीरिक तापमान को अपनी त्वचा से स्वेद (पसीना) निष्कासन द्वारा नियंत्रत करते हैं। मांसाहारी जानवर पानी को अंदर खींचने के स्थान पर लप-लपाकर अर्थात जिह्वा से पीती हैं। इसके विपरीत शाकारी जानवर पानी को लप-लपाकर पीने के स्थान पर अंदर की खींचकर पीते हैं। मनुष्य भी पानी अंदर खींचकर पीता है, लप-लपाकर नहीं पीता है। मानव शरीर के इन सभी शारीरिक लक्षणों से ज्ञात होता है कि भगवान ने मनुष्यों की रचना मांसाहारी जानवरों के समान नहीं की है। परिणास्वरूप मांस को मनुष्यों के लिए अशुद्ध भोजन माना गया है। मनुस्मृति में कहा गया है कि मांस का सेवन करने से पाप कर्म उत्पन्न होते हैं
मामं स भक्षयितामूत्र यस्य मासं इहादमय अहं
एतं मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिनः
(मनुस्मृति-5.55)
'मांसा' शब्द का तात्पर्य है-मैं जिसका मांस यहाँ खा रहा हूँ वह अगले जीवन (योनि) में मेरे को खाएगा। इसी कारण ज्ञानी व्यक्ति मांस को 'मांसा' कहते हैं अर्थात दोहराए जाने वाली क्रिया जिसका अर्थ है कि मैं उसे खाता हूँ, वह मुझे खाता है।