शरीरवाड्.मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ॥15॥
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्नं स पश्यति दुर्मतिः ॥16॥
BG 18.15-16: शरीर, मन या वाणी से जो भी कार्य संपन्न किया जाता है भले ही वह उचित हो या अनुचित, उसके ये पाँच सहायक कारक हैं। वे जो इसे नहीं समझते और केवल आत्मा को ही कर्ता मानते हैं, अपनी दूषित बुद्धि के कारण वे वस्तुओं को उनके वास्तविक रूप में नहीं देख सकते।
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कर्म तीन प्रकार के हैं-कायिक (वे कार्य जो शरीर द्वारा संपन्न किए जाते हैं), वाचिक (वे कर्म जो वाणी द्वारा संपादित होते हैं) तथा मानसिक (वे कार्य जो मन से किये जाते हैं।) इनमें से प्रत्येक श्रेणी के अंतर्गत चाहे हम पुण्य या पापमय कार्य करते हैं, इनके लिए पिछले श्लोक में वर्णित पाँच कारक उत्तरदायी होते हैं। अहम् के कारण हम स्वयं को अपने कार्यों का कर्ता मानने लगते हैं। उदाहरणार्थ “मैंने यह उपलब्धि प्राप्त की।", "मैंने यह कार्य संपूर्ण किया।", "मैं यह करूंगा।" कर्तापन के भ्रम के कारण हम इस प्रकार के वक्तव्य देते हैं। इस ज्ञान को प्रकट करने का श्रीकृष्ण का उद्देश्य आत्मा के कर्तापन के अहम् को नष्ट करना है। इसलिए वे कहते हैं कि जो आत्मा को केवल कर्म करने के सहायक कारक के रूप में देखते हैं वे वस्तुओं को उनके वास्तविक रूप में नहीं देखते। यदि भगवान द्वारा आत्मा को शरीर नहीं दिया जाता तब यह कुछ नहीं कर सकती थी। यदि भगवान शरीर को ऊर्जा प्रदान नहीं करते तब यह भी कुछ नहीं कर सकता था। केनोपनिषद् में वर्णन किया गया है
यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते।
"ब्रह्म का वर्णन वाणी द्वारा नहीं किया जा सकता बल्कि उसकी प्रेरणा से वाणी बोलने की शक्ति प्राप्त करती है।"
यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्
(केनोपनिषद्-1.5)
"ब्रह्म को मन और बुद्धि से नहीं जाना जा सकता, उनकी शक्ति द्वारा मन और बुद्धि कार्य करते हैं"
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चढूंषि पश्यति
(केनोपनिषद्-1.6)
"ब्रह्म को नेत्रों द्वारा देखा नहीं जा सकता, उसकी प्रेरणा से आंखें देख सकती हैं।"
यच्छ्रोत्रेण न श्रीणोति येन श्रोत्रमिदम् श्रुतम्
(केनोपनिषद्-1.7)
"ब्रह्म को कानों द्वारा सुना नहीं जा सकता, उसकी शक्ति से कान सुनते हैं।"
यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्राणीयते
(केनोपनिषद्-1.8)
"ब्रह्म प्राण शक्ति से क्रियाशील नहीं होता, उसकी प्रेरणा से प्राण शक्ति कार्य करती हैं।"
इसका अर्थ यह नहीं है कि कर्मो के निष्पादन में आत्मा की कोई भूमिका नहीं होती है। यह एक कार चालक के समान है जो गाड़ी के स्टीयरिंग व्हील को नियंत्रित करते हुए यह निर्णय करता है कि कार को किस दिशा में कितनी गति से चलाना है। समान रूप से आत्मा भी शरीर, मन और बुद्धि के कर्मों को नियंत्रित करती है। लेकिन वह स्वयं किसी कार्य को संपन्न करने का श्रेय लेने का दावा नहीं करती। यदि हम स्वयं को अपने समस्त कर्मों को संपन्न करने का एकमात्र कारण मानते हैं तब हम उसी प्रकार से स्वयं को अपने कर्मों का भोक्ता बनाना चाहेंगे। लेकिन जब हम स्वयं को कर्तापन के अहम् से मुक्त कर लेते हैं तब हम अपने प्रयासों का श्रेय भगवान को देते हैं और उनके द्वारा प्रदान किए गए सुख साधनों को हम उनकी कृपा के रूप में स्वीकार करते हैं। तब हमें यह अनुभव होता है कि हम अपने कर्मों के भोक्ता नहीं हैं और सभी कर्म भगवान के सुख के लिए हैं। जैसा कि अगले श्लोक में किए गए वर्णन के अनुसार यह ज्ञान हमें यज्ञ, दान और तपस्या जैसे सभी कर्मों को श्रद्धा और भक्ति भाव से संपन्न कर इन्हें भगवान को समर्पित करने में सहायता करता है।