श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधार्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाजोति किल्बिषम् ॥47॥
श्रेयान्–श्रेष्ठ; स्व-धर्मः-अपने निश्चित व्यवसायी कार्य; विगुणः-त्रुटिपूर्ण ढंग से सम्पन्न करना; परधार्मात्-दूसरों की अपेक्षा; सु-अनुष्ठितात्-कुशलतापूर्वक; स्वभाव-नियतम्-जन्म जात स्वभाव के अनुसार; कर्म-कर्म कुर्वन्–करने से; न कभी नहीं; आप्नोति–प्राप्त करता है; किल्बिषम्–पाप को।
BG 18.47: अपने धर्म का पालन त्रुटिपूर्ण ढंग से करना अन्य के कार्यों को उपयुक्त ढंग से करने की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है। अपने स्वाभाविक कर्तव्यों का पालन करने से मनुष्य पाप अर्जित नहीं करता।
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जब हम अपने स्वधर्म (निश्चित व्यावसायिक कर्त्तव्य) का पालन करते हैं तब उससे दो प्रकार से लाभ होता है। पहला यह हमारी मनोवृत्ति के अनुरूप होता है। इसलिए यह हमारे व्यक्तित्त्व के लिए उसी प्रकार से अनुकूल होता है जैसे किसी पक्षी का आकाश में उड़ना और मछली का जल में तैरना। दूसरे यह क्योंकि मन के लिए सहज होता है और यह अधिकतर न चाहते हुए भी किया जा सकता है जिसके परिणामस्वरूप हमारी चेतना सहजता से भक्ति में तल्लीन हो सकती है।
इसके स्थान पर यदि हम अपने कर्त्तव्यों को दोषपूर्ण समझ कर उनका त्याग कर देते हैं और अपने स्वभाव के प्रतिकूल अन्य लोगों का कार्य सम्पन्न करने लगते हैं तब हम अपने व्यक्तित्त्व की जन्मजात प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करते हैं। अर्जुन की स्थिति एकदम ऐसी ही थी। उसका क्षत्रियोचित स्वभाव उसे सैन्य और प्रशासनिक कार्यों में प्रवृत्त करता था। परिस्थितियाँ उसे ऐसी स्थिति में ले गयी जहाँ उसके लिए धर्म की मर्यादा हेतु युद्ध में भाग लेना अनिवार्य था। यदि वह अपने कर्त्तव्य पालन से विमुख हो जाता और युद्ध क्षेत्र से भाग कर वन में तपस्या करने लगता। तब ऐसा करने पर उसे आध्यात्मिक दृष्टि से भी कोई लाभ प्राप्त नहीं होता क्योंकि वन में भी वह अपने अंतर्निहित गुणों का त्याग नहीं कर पाता। यह संभावना भी थी कि वह वन में जाकर आदिवासियों को एकत्रित कर लेता और उनका राजा बन जाता। इसकी अपेक्षा उसके लिए यह उचित होगा कि वह अपने जन्मजात कर्त्तव्यों का पालन करता रहे और अपने कर्मफल भगवान को समर्पित कर उनकी उपासना करे। जब कोई आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करता है तब स्व-धर्म स्वतः परिवर्तित हो जाता है फिर यह शारीरिक स्तर पर टिका नहीं रहता बल्कि आत्मा का धर्म बन जाता है जोकि भगवान की भक्ति है। ऐसी अवस्था में अपने वृत्ति परक कर्तव्यों का त्याग करना और पूर्ण रूपेण भक्ति में तल्लीन होना किसी के लिए औचित्यपूर्ण हो सकता है क्योंकि अब यह किसी व्यक्ति के स्वभाव का स्व-धर्म बन जाता है। ऐसी पात्रता से युक्त लोगों के लिए श्रीकृष्ण भगवद्गीता के अंत में इस प्रकार से अपना अंतिम निष्कर्ष देते हैं-"सभी प्रकार के धर्मों का त्याग करो और केवल मेरी शरण ग्रहण करो" (18.66)। फिर भी जब तक हम उस अवस्था तक नहीं पहुंचते तब तक इस श्लोक में प्रदत्त उपदेश का पालन करना होगा। श्रीमदभागवदम् पुराण में भी ऐसा वर्णन किया गया है
तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता।
मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते ।।
(श्रीमदभागवदम्-11.20.9)
"हमें तब तक अपने वृत्ति परक कर्तव्यों का पालन करना चाहिए जब तक भगवान की लीलाओं के श्रवण-कीर्तन और स्मरण द्वारा हमारे मन में भगवान की भक्ति के प्रति रूचि विकसित न हो जाए।"