असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ॥49॥
असक्त-बुद्धिः-आसक्ति रहित बुद्धि; सर्वत्र-सभी स्थानों पर; जित-आत्मा-अपने मन को वश में करने वाला; विगत-स्पृहः-इच्छाओं से रहित; नैष्कर्म्य-सद्धिम् अकर्मण्यता की स्थिति; परमाम्-सर्वोच्च; संन्यासेन-वैराग्य के अभ्यास द्वारा; अधिगच्छति–प्राप्त करता है।
BG 18.49: वे जिनकी बुद्धि सदैव प्रत्येक स्थान पर अनासक्त रहती है, जिन्होंने अपने मन को वश में कर लिया है जो वैराग्य के अभ्यास द्वारा कामनाओं से मुक्त हो जाते हैं, वे कर्म से मुक्ति की पूर्ण सिद्धि प्राप्त करते हैं।
Start your day with a nugget of timeless inspiring wisdom from the Holy Bhagavad Gita delivered straight to your email!
इस अंतिम अध्याय में श्रीकृष्ण ने पहले से वर्णित कई सिद्धान्तों को दोहराया है। इस अध्याय के आरम्भ में उन्होंने अर्जुन को समझाया था कि केवल जीवन के उत्तरदायित्व से विमुख होना न तो संन्यास है और न ही त्याग है। अब वे अकर्मण्यता की अवस्था या नैष्कर्म्यसिद्धिं का वर्णन करते हैं। इस अवस्था को संसार के प्रवाह के बीच में रहते हुए भी स्वयं को घटनाओं और परिणामों से विरक्त रख कर अपने कर्त्तव्य पालन पर ध्यान केन्द्रित करते हुए प्राप्त किया जा सकता है। यह उसी प्रकार से है जैसे कि एक पुल के नीचे से बहने वाला पानी जो एक ओर से प्रवेश करता है और दूसरी ओर बहता है। पुल न तो जल को प्राप्त करता है और न ही इसका वितरक होता है। उसी प्रकार से कर्मयोगी अपने कर्तव्य का निर्वहन करतें हैं लेकिन अपने मन को घटनाओं के प्रवाह से अप्रभावित रखते हैं। वे अपने कर्तव्य का भली भांति निर्वहन करने के प्रयोजनार्थ उत्कृष्ट प्रयासों की उपेक्षा नहीं करते बल्कि उन्हें भगवान की आराधना की रूप में देखते हैं लेकिन वे अंतिम निर्णय भगवान पर छोड़ देते हैं और इस प्रकार से जो भी घटित होता है उससे संतुष्ट और अविचलित रहते हैं।
यहाँ इस विषय को एक सरल कथा द्वारा स्पष्ट किया जाता है। एक व्यक्ति की दो पुत्रियाँ थी। एक का विवाह किसान के साथ हुआ था और दूसरी का विवाह ईंट के भृटे के मालिक से हुआ था। एक दिन पिता ने अपनी पहली पुत्री से दूरभाष पर बातचीत की और यह पूछा कि वह कैसी है? उसने उत्तर दिया-"पिताजी हम आर्थिक कठिनाईयों में जीवन निर्वाह कर रहे हैं। कृपया भगवान से प्रार्थना करें कि आने वाले महीनों में अच्छी वर्षा हो।" इसके बाद उस व्यक्ति ने अपनी दूसरी पुत्री को फोन किया तब उसकी पुत्री ने बताया-"हम आर्थिक तंगी में है कृपया भगवान से यह प्रार्थना करें कि इस वर्ष वर्षा न हो ताकि सूर्य की तेज धूप निकलने से ईटों का अधिक उत्पादन हो सके।" पिता ने दोनों पुत्रियों की एक दूसरे से विपरीत प्राथनाओं को सुना और सोचा-"केवल भगवान ही जानता है कि क्या अच्छा है। इसलिए उसे जो अच्छा लगे वही करे।" भगवान की ऐसी इच्छाओं को स्वीकार करने से संसार में निरन्तर घट रही घटनाओं की धारा में मग्न होने के पश्चात भी हमारे भीतर कर्म-फलों के प्रति विरक्ति उत्पन्न होगी।