दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥49॥
दूरेण-दूर से त्यागना; हि-निश्चय ही; अवरम्-निष्कृष्ट; कर्म-कामनायुक्त कर्म; बुद्धि योगात्-दिव्य ज्ञान में स्थित बुद्धि के साथ; धनञ्जय-अर्जुन; बुद्धौ-दिव्य ज्ञान और अंतर्दृष्टि; शरणम्-शरण ग्रहण करना; अन्विच्छ शरण ग्रहण करो; कृपणा:-कंजूस; फलहेतवः-कर्म का फल प्राप्त करने की इच्छा वाले।
BG 2.49: हे अर्जुन! दिव्य ज्ञान और विवेक की शरण ग्रहण करो, फलों की आसक्ति युक्त कर्मों से दूर रहो जो दिव्य ज्ञान में स्थित बुद्धि के द्वारा निष्पादित किए गए कार्यों से निष्कृष्ट हैं। जो अपने कर्मफलों का भोग करना चाहते हैं, वे कृपण हैं।
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किसी भी कार्य के दो प्रकार के दृष्टिकोण होते हैं-(1) हमारी बाह्य गतिविधियाँ, (2) उनके प्रति हमारी आंतरिक मनोवृत्ति। इसे हम वृंदावन की पावन भूमि पर बनाए जा रहे मन्दिर का उदाहरण देते हुए स्पष्ट कर सकते हैं। मन्दिर का निर्माण करने वाले श्रमिक एक पवित्र कार्य को सम्पन्न करने में लगे हैं किन्तु उनकी मनोवृत्ति सांसारिक है। वे केवल अर्जित किए जाने वाले पारिश्रमिक में ही रुचि रखते हैं। यदि कोई दूसरा ठेकेदार उन्हें अधिक पारिश्रमिक देता हैं तब वे अपनी नौकरी बदलने में कोई संकोच नहीं करेंगे। वृंदावन मे कई तपस्वी लोग भी रहते हैं जो यह देखकर कि वृंदावन में भव्य मंदिर का निर्माण हो रहा है, वे इसे भगवान की सेवा मानकर कार सेवा (स्वैच्छिक सेवा) में जुट जाते हैं। श्रमिकों और साधुओं द्वारा निष्पादित किया जा रहा कार्य एक समान ही है किन्तु उनकी आंतरिक मनोवृत्ति अलग-अलग है। यहां श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं कि वह अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए अपनी आंतरिक प्रेरणा के साथ ऊपर उठे। श्रीकृष्ण घोषणा करते हैं कि जो लोग स्वयं को सुखी रखने के प्रयोजनार्थ कर्म करते हैं, वे दुःखी होते हैं। वे लोग जो बिना फल की आसक्ति के समर्पित होकर समाज के कल्याणार्थ अपने कर्त्तव्य का पालन करते हैं, श्रेष्ठ कहलाते हैं और वे लोग जो अपने कर्मों के फल भगवान को अर्पित कर देते हैं, वे वास्तव में ज्ञानी हैं। इस श्लोक में कृपण शब्द प्रयुक्त हुआ है। श्रीमद्भागवतम् में कृपण शब्द का वर्णन निम्न प्रकार से किया गया हैं:
न वेद कृपणः श्रेय आत्मनो गुणवस्तुदृक् ।
तस्य तानिच्छतो यच्छेद् यदि सोऽपि तथाविधः।।
(श्रीमद्भागवतम्-6.9.49)
"कृपण वे हैं जो यह सोचते हैं कि परम सत्य केवल भौतिक तत्त्वों द्वारा निर्मित इन्द्रिय विषय भोग के पदार्थों में ही है।" श्रीमद्भागवतम् में पुनः यह भी वर्णन किया गया है: “कृपणो योऽजितेन्द्रियः" (11.19.44) "कृपण वह है, जिसका इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं है।" जब कोई मनुष्य चेतना के उच्चतर स्तर की ओर अग्रसर होता है तब वह स्वभाविक रूप से कर्मों के फलों का सुख प्राप्त करने की इच्छा का त्याग कर देता है और समाज सेवा की भावना से कार्य करता है।
कम्प्यूटर तकनीक में प्रतिष्ठित माइक्रोसॉफ्ट कॉरपोरेशन के संस्थापक बिल गेट्स आजकल अपनी समृद्धि, सम्पत्ति और ऊर्जा को समाज सेवा और जनकल्याण के कार्यों पर लगा रहे हैं। इसी प्रकार बिल क्लिंटन यू.एस.ए. जैसे शक्तिशाली राष्ट्र के राष्ट्रपति बनने के पश्चात् अब संसार की सेवा करने का उपदेश देने में लगे हुए हैं और उन्होंने इस विषय पर 'हाऊ ईच ऑफ अस कैन चेंज द वर्ल्ड' नामक पुस्तक की रचना की है। सेवा में रत होना प्रशंसनीय है किन्तु फिर भी इसमें अपूर्णता है। सेवा की मनोभावना पूर्ण तभी होती है जब हम अपने कर्मों का निष्पादन भगवान के सुख के लिए करना सीख जाते हैं और उससे प्राप्त होने वाले फलों को भगवान को अर्पित कर देते हैं।