कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥51॥
कर्मजम्-सकाम कर्मों से उत्पन्न; बुद्धि-युक्ताः-समबुद्धि युक्त; हि-निश्चय ही; फलम्-फल; त्यक्त्वा-त्याग कर; मनीषिणः-बड़े-बड़े ऋषि मुनिः जन्मबन्ध-विनिर्मुक्ताः-जन्म एवं मृत्यु के बन्धन से मुक्ति; पदं–अवस्था पर; गच्छन्ति–पहुँचते हैं; अनामयम्-कष्ट रहित।
BG 2.51: समबुद्धि युक्त ऋषि मुनि कर्म के फलों की आसक्ति से स्वयं को मुक्त कर लेते हैं जो हमें जन्म-मृत्यु के चक्र में बांधती हैं। इस चेतना में कर्म करते हुए वे उस अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं जो सभी दुःखों से परे है।
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श्रीकृष्ण निरन्तर फल के प्रति आसक्त हुए बिना कर्म करने के विषय को समझा रहे हैं और कहते हैं कि यह विरक्ति मनुष्य को सुख-दुःख की अनुभूति से परे की अवस्था में ले जाती है। हम प्रेम के लिए लालायित रहते हैं किन्तु हमें निराशा मिलती है, हम जीवित रहना चाहते हैं लेकिन हम यह भी जानते हैं कि हम प्रतिक्षण मृत्यु की ओर बढ़ रहे हैं।
श्रीमद्भागवतम् में वर्णन किया गया है:
सुखाय कर्माणि करोति लोको न तैः सुखं वान्यदुपारमं वा।
विन्देत भूयस्तत एव दुःखं यदत्र युक्तं भगवान् वदेनः।।
(श्रीमद्भागवतम्-3.5.2)
"सभी लोग सुख प्राप्त करने के लिए कर्मों में संलग्न रहते हैं किन्तु फिर भी उन्हें इससे संतोष नहीं मिलता अपितु फल के प्रति आसक्त होकर कर्म करने से उनके कष्ट और अधिक बढ़ जाते हैं।" परिणामस्वरूप व्यावहारिक रूप से सभी लोग इस संसार मे दुःखी हैं। कुछ शारीरिक और मानसिक कष्ट भोग रहे हैं। कुछ लोग अपने परिवार के सदस्यों या सगे-संबंधियों से उत्पीड़ित होते हैं और कुछ धन और जीवन यापन के लिए मूलभूत वस्तुओं के अभाव से दुःखी हैं। भौतिक सुखों में लिप्त सांसारिक मनोवृत्ति वाले लोग जानते हैं कि वे वास्तव मे दुःखी हैं किन्तु वे सोचते हैं कि जो अन्य लोग उनसे अधिक समृद्ध हैं, वे सुखी होंगे और इसलिए वे भी सांसारिक सुख सुविधाओं को बढ़ाने की दिशा की ओर निरन्तर भागने में लगे रहते हैं। यह अंधी दौड़ अनेक जन्मों तक चलती रहती है और फिर भी सुख की कोई किरण दिखाई नहीं देती। जब लोगों को यह अनुभव होता है कि सकाम कर्मों में संलग्न होने से कभी भी कोई मनुष्य सुख प्राप्त नहीं कर सकता, तब उन्हें समझ में आता है कि वे जिस दिशा की ओर भाग रहे हैं, वह निस्सार है और फिर वे आध्यात्मिक जगत की ओर मुड़ने के लिए सोचते हैं।
वे बुद्धिमान पुरुष जो आध्यात्मिक ज्ञान से दृढ़-निश्चयी हो जाते हैं वे यह जान जाते हैं कि भगवान सभी पदार्थों के भोक्ता हैं। परिणामस्वरूप वे अपने कर्मों के प्रति आसक्ति के भाव को त्याग कर सब कुछ भगवान को अर्पित करते हैं और सुख-दुःख आदि सभी को समान रूप से स्वीकार करते हैं। ऐसा करने से उनके कर्म अपने फलों से मुक्त हो जाते हैं जो मनुष्य को जन्म और मृत्यु के बंधन मे बांधते हैं।