प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥27॥
प्रकृतेः-प्राकृत शक्ति का; क्रियमाणानि–क्रियान्वित करना; गुणैः-तीन गुणों द्वारा; कर्माणि-कर्म; सर्वशः-सभी प्रकार के; अहङ्कार-विमूढ-आत्मा-अहंकार से मोहित होकर स्वंय को शरीर मानना; कर्ता-करने वाला; अहम्-मैं; इति–इस प्रकार; मन्यते-सोंचता है।
BG 3.27: जीवात्मा देह के मिथ्या ज्ञान के कारण स्वयं को अपने सभी कर्मों का कर्ता समझती है।यद्यपि विश्व के सभी कार्य प्रकृति के तीन गुणों के अन्तर्गत सम्पन्न होते हैं लेकिन अहंकारवश जीवात्मा स्वयं को अपने सभी कर्मों का कर्ता समझती है।
Start your day with a nugget of timeless inspiring wisdom from the Holy Bhagavad Gita delivered straight to your email!
हम जानते हैं कि संसार हमारे द्वारा निर्देशित नहीं होता अपितु प्रकृति द्वारा कार्यान्वित होता है। हमारे शरीर की क्रियाएँ जिन्हें हम प्रायः दो श्रेणियों में विभक्त करते हैं-1. प्राकृतिक जैविक क्रियाएँ, जैसे-पाचन, रक्त संचालन, हृदय गति आदि का संचालन हमारे सोंच-विचार के बिना स्वाभाविक रूप से संपन्न होता है। बोलना, सुनना, चलना, सोना और काम करना आदि क्रियाओं का संचालन हमारे सोंचने और विचारने से होता है।
उपर्युक्त दोनों प्रकार के कार्य इस मानव तंत्र द्वारा संपन्न होते हैं। मानव तंत्र के सभी अंग प्रकृति या भौतिक शक्ति द्वारा निर्मित होते हैं जिसमें तीन गुण-सत्व, रजस, और तमस सम्मिलित हैं। जैसे लहर समुद्र से अलग नहीं होती अपितु उसमें समाकर उसका अंश बनी रहती है, उसी प्रकार से शरीर उसी प्रकृति का अंग है जिससे इसकी रचना होती है। इस प्रकार से प्रकृति अर्थात् माया शक्ति ही संसार में होने वाले सभी कार्यकलापों की जननी है। तब फिर आत्मा स्वयं को कर्मों का कर्ता क्यों समझती है। इसका कारण यह है कि मिथ्या अभिमान के बोध से आत्मा भ्रम के कारण स्वयं को शरीर समझ लेती है। इसलिए उसे कर्ता होने का भ्रम हो जाता है। देखिए, जिस प्रकार अगर रेलवे प्लेटफार्म पर दोनों ओर दो ट्रेन खड़ी है और एक रेलगाड़ी के यात्री दूसरी रेलगाड़ी पर अपनी दृष्टि रखे हुए हैं और फिर जब दूसरी रेलगाड़ी चलने लगती है तब पहली गाड़ी भी चलती हुई प्रतीत होने लगती है। इसी प्रकार से अचल आत्मा स्वयं को सचल प्रकृति के रूप में पहचानने लगती है। जिस क्षण आत्मा अभिमान को त्याग कर भगवान की इच्छा के आगे समर्पण कर देती है तब उसे स्वयं के अकर्ता होने का आभास होता है। अब कोई यह प्रश्न कर सकता है कि यदि आत्मा वास्तव में अकर्ता है तब फिर वह शरीर द्वारा किए गए कार्यों के कारण कर्मों के बंधन में क्यों फंसती है। इसका कारण यह है कि आत्मा स्वयं कोई कार्य नहीं करती लेकिन वह इन्द्रिय-मन-बुद्धि को कार्य करने का निर्देश देती है। उदाहरण गार्थ रथ का सारथी स्वयं रथ को नहीं चलाता अपितु घोड़ों को निर्देश देता है। अब यदि कोई दुर्घटना घटित होती है तब उसका दोष घोड़ों का न होकर अपितु उन्हें निर्देशित करने वाले सारथी का होता है। उसी प्रकार से आत्मा शरीर के कार्यों के लिए उत्तरदायी होती है क्योंकि इन्द्रिय, मन और बुद्धि आत्मा से प्रेरणा पा कर ही कार्य करते हैं।