त्यक्त्वा कर्मफलासङ्ग नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ॥20॥
त्यक्त्वा-त्याग कर; कर्मफल- आसंङ्गम्-कमर्फल की आसक्ति; नित्य-सदा; तृप्तः-संतुष्ट; निराश्रयः-किसी पर निर्भर न होना; कर्मणि-कर्म में; अभिप्रवृत्तः-संलग्न रहकर; अपि-वास्तव में; न-नहीं; एव-निश्चय ही; किञ्चित्-कुछ; करोति-करता है; स:-वह मनुष्य।
BG 4.20: अपने कर्मों के फलों की आसक्ति को त्याग कर ऐसे ज्ञानीजन सदा संतुष्ट रहते हैं और बाह्य विषयों पर निर्भर नहीं होते। कर्मों में संलग्न रहने पर भी वे वास्तव में कोई कर्म नहीं करते।
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बाह्य दृष्टि से कर्मों का वर्गीकरण नहीं किया जा सकता। कर्म और अकर्म क्या है, यह निर्धारित करना मन का कार्य है। ज्ञानी मनुष्यों का मन भगवान में तल्लीन रहता है। भगवान के साथ भक्ति भावना से युक्त होकर वे केवल भगवान को ही अपने आश्रयदाता के रूप में देखते हैं और संसार के आश्रयों पर निर्भर नहीं रहते। इस प्रकार की मन:स्थिति के कारण उनके प्रत्येक कर्म को अकर्म कहा जाता है। इस सत्य को समझने के लिए पुराण में एक सुन्दर कथा का वर्णन किया गया है। वृदावन की गोपियों ने एक बार उपवास रखा। उस उपवास को पूर्ण करने के लिए किसी ऋषि को भोजन खिलाना आवश्यक था। श्रीकृष्ण ने उन्हें महान ऋषि दुर्वासा को भोजन खिलाने का सुझाव दिया जो यमुना नदी के दूसरी ओर रहते थे, गोपियों ने स्वादिष्ट भोजन बनाया और दुर्वासा ऋषि को खिलाने के लिए निकल पड़ी किन्तु उस दिन नदी का बहाव बहुत तेज था और कोई भी नाविक उन्हें नदी पार कराने के लिए तैयार नहीं हुआ।
गोपियों ने जब श्रीकृष्ण से इसका समाधान पूछा तब उन्होंने उत्तर दिया-"तुम नदी से कहो कि यदि श्रीकृष्ण अखण्ड ब्रह्मचारी है तब वह उन्हें रास्ता दे।" गोपिया हँसने लगी क्योंकि वह जानती थीं कि श्रीकृष्ण प्रायः उन पर मोहित रहते हैं और इसलिए उनके अखण्ड ब्रह्मचारी होने का कोई प्रश्न नहीं था। लेकिन जब उन्होंने यमुना नदी से इस प्रकार की प्रार्थना की तब नदी ने पुष्पों का सेतु प्रकट कर उन्हें नदी पार जाने का मार्ग दे दिया। गोपियाँ आश्चर्यचकित रह गयीं। वे नदी पार कर दुर्वासा ऋषि के आश्रम पहुँची। उन्होंने दुर्वासा ऋषि से प्रार्थना की कि वह उनके स्वादिष्ट भोजन को ग्रहण करें। एक महान तपस्वी होने के कारण उन्होंने भोजन का कुछ अंश ही ग्रहण किया जिससे गोपियाँ निराश हो गयीं। दुर्वासा ने गोपियों की इच्छा को स्वीकार किया और उन्होंने अपनी योग शक्ति का प्रयोग कर गोपियों का सारा भोजन खा लिया। उन्हें सारा भोजन ग्रहण करते देख गोपियाँ अचम्भित हो गयीं किन्तु उन्हें इस बात की प्रसन्नता थी कि दुर्वासा ने उनके भोजन को ग्रहण करने की कृपा कर उनका मान बढ़ाया।
गोपियों ने अब ऋषि दुर्वासा से वापस नदी पार कराने के लिए सहायता करने को कहा। ऋषि दुर्वासा ने कहा कि "यमुना नदी से कहो कि यदि दुर्वासा ने आज तक केवल दूब के अतिरिक्त कुछ भी ग्रहण न किया हो तब वह उन्हें रास्ता दे" गोपियाँ पुनः हँसने लगी क्योंकि उन्होंने दुर्वासा को अपार भोजन खाते हुए देखा था किन्तु उन्हें तब अत्यंत आश्चर्य हुआ जब उन्होंने यमुना नदी से ऐसी प्रार्थना की और नदी ने पुनः उन्हें रास्ता दे दिया।
गोपियों ने श्रीकृष्ण से इस घटना का रहस्य पूछा तो उन्होंने स्पष्ट किया कि भगवान और संत बाह्य रूप से लौकिक कर्मों में व्यस्त दिखाई देते हैं किन्तु आन्तरिक दृष्टि से वे सदैव इन्द्रियातीत अवस्था में होते हैं इसलिए सभी प्रकार के कर्म करते हुए भी वे सदा अकर्त्ता माने जाते हैं। यद्यपि श्रीकृष्ण बाह्य रूप से गोपियों से प्रेम भाव से मिलते-जुलते थे किन्तु आन्तरिक रूप से अखण्ड ब्रह्मचारी थे। इसी प्रकार दुर्वासा ने गोपियों द्वारा अर्पित किया गया स्वादिष्ट भोजन खाया किन्तु आन्तरिक दृष्टि से उन्होंने मन से दूब का स्वाद ही चखा था। ये दोनों कर्म में अकर्म के सटीक उदाहरण हैं।