Bhagavad Gita: Chapter 4, Verse 26

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥26॥

श्रोत्र-आदीनि-श्रवणादि क्रियाएँ; इन्द्रियाणि-इन्द्रियाँ; अन्ये–अन्य; संयम-नियंत्रण रखना; अग्निषु-यज्ञ की अग्नि में; जुह्वति–अर्पित करना; शब्द-आदीन्-ध्वनि कम्पन; विषयान्–इन्द्रिय तृप्ति के विषय; अन्ये-दूसरे; इन्द्रिय-इन्द्रियों की; अग्निषु-अग्नि में; जुह्वति–अर्पित करते हैं।

Translation

BG 4.26: कुछ योगीजन श्रवणादि क्रियाओं और अन्य इन्द्रियों को संयमरूपी यज्ञ की अग्नि में स्वाहा कर देते हैं और जबकि कुछ अन्य शब्दादि क्रियाओं और इन्द्रियों के अन्य विषयों को इन्द्रियों के अग्निरूपी यज्ञ में भेंट चढ़ा देते हैं।

Commentary

 अग्नि में जो भी पदार्थ डाला जाए वह उसका रूप परिवर्तित कर उसे अपना रूप दे देती है। बाह्य वैदिक यज्ञ के अनुष्ठानों में यज्ञ कुण्ड में डाली गयी आहूतियाँ भौतिक रूप में भस्म हो जाती हैं। आध्यात्मिकता के आंतरिक अभ्यास में अग्नि एक प्रतीकात्मक चिह्न है। आत्म संयम की अग्नि इन्द्रियों की कामनाओं को भस्म कर देती है।इस श्लोक में श्रीकृष्ण आत्मिक उत्थान की दो विरोधी पद्धतियों के बीच के अन्तर को स्पष्ट कर रहे हैं। इन दोनों में एक मार्ग इन्द्रियों का दमन करने से संबंधित है जिसका अभ्यास हठ योग में किया जाता है। इस प्रकार के यज्ञ में केवल शरीर के रख-रखाव को छोड़कर इन्द्रियों की समस्त क्रियाओं को स्थगित कर दिया जाता है और आत्मबल से मन को इन्द्रियों से पूर्णतया हटाकर अंतर्मुखी बनाया जाता है। 

इसके विपरीत भक्ति योग का अभ्यास है। इस में इन्द्रियाँ सृष्टि में व्याप्त प्रत्येक अणु में उसके स्रष्टा भगवान की महिमा का अवलोकन करती हैं। इन्द्रियाँ लौकिक सुखों का साधन नहीं बनती अपितु इसके विपरीत वे परिष्कृत होकर सभी में भगवान की अनुभूति करती हैं। सातवें अध्याय के आठवें श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं, "रसो अहमत्सु कौन्तेय" अर्थात् 'हे अर्जुन!' मुझे जल के साररूप स्वाद के रूप में जानो। तदानुसार भक्ति मार्ग का अनुसरण करने वाले योगी अपनी समस्त इन्द्रियों द्वारा जो भी देखते, सुनते, आस्वादन करते तथा सूंघते हैं उन सब में वे भगवान को देखने का अभ्यास करते हैं। भक्ति का मार्ग हठयोग के मार्ग से सरल है और इसका अनुसरण करना आनन्ददायक है तथा इस मार्ग में पतन होने का जोखिम भी कम है। यदि कोई साइकिल चला रहा है और जब वह उसे ब्रेक लगाकर रोकता है तब वह अपना संतुलन खो देता है। यदि साइकिल चलाने वाला केवल हैंडल को दायें बायें घुमाता है तब आगे की दिशा में जा रही साइकिल सुगमता से रुक जाती है और साइकिल सवार संतुलन भी नहीं खोता।

Swami Mukundananda

4. ज्ञान कर्म संन्यास योग

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