Bhagavad Gita: Chapter 4, Verse 36

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥36॥

अपि-भी; चेत्-यदि; असि-तुम हो; पापेभ्यः-पापी; सर्वेभ्यः-समस्त; पाप-कृत्-तमः-महापापी; सर्वम्-ऐसे समस्त कर्म; ज्ञान-प्लवेन दिव्यज्ञान की नौका द्वारा; एव–निश्चय ही; वृजिनम्-पाप के समुद्र से; सन्तरिष्यसि-तुम पार कर जाओगे।

Translation

BG 4.36: जिन्हें समस्त पापियों में महापापी समझा जाता है, वे भी दिव्यज्ञान की नौका में बैठकर संसार रूपी सागर को पार करने में समर्थ हो सकते हैं।

Commentary

मायाबद्ध संसार गहरे समुद्र की भांति है जिसमें मनुष्य जन्म, रोग, बुढ़ापा और मृत्युरूपी लहरों द्वारा इधर-उधर हचकोले खाता रहता है। माया शक्ति के कारण सभी को तीन प्रकार के दुख सहने पड़ते हैं-

1. आध्यात्मिक दुःख मनुष्य के अपने शारीरिक और मानसिक कष्ट, 2. आधिभौतिक दुःख अन्य लोगों द्वारा दिए जाने वाले दुःख और कष्ट, 3. आधिदैविक दुःख प्राकृतिक आपदाओं के कारण उत्पन्न दुःख। माया के बंधनों में आत्मा को कभी विश्राम नहीं मिलता और ऐसी दुःखद अवस्था में रहते हुए हमारे अनन्त जन्म व्यतीत हो चुके हैं। खेल के मैदान में ठोकर खाकर लुढ़कती हुई फुटबॉल की भांति आत्मा अपने पाप और पुण्य कर्मों के अनुसार कभी स्वर्ग लोक में जाती है और फिर नरक के निम्न लोकों में भेजी जाती है और पुनः पृथ्वी पर लौट आती है। दिव्य ज्ञान मायारूपी सागर को पार करने के लिए नौका प्रदान करता है। अज्ञानी लोग कर्म करते हैं और कर्म बंधन में फंस जाते हैं। जब इन्हीं कर्मों का सम्पादन भगवान के प्रति यज्ञ के रूप में किया जाता है तब यह ज्ञानियों को बंधन मुक्त कर देता है। इस प्रकार का ज्ञान सांसारिक बंधन को काटने का साधन बन जाता है। कठोपनिषद् में वर्णन है-

विज्ञानसारथिर्यस्तु मनःप्रग्रहवान्नरः। 

सोऽध्वनः परमाप्नेती ति तद्विष्णोः परमं पदम्।। 

(कठोपनिषद्-1.3.9)

"दिव्य ज्ञान के द्वारा अपनी बुद्धि को प्रकाशित करो और फिर प्रकाशित बुद्धि द्वारा अनियंत्रित मन को वश में करके संसार रूपी महासागर को पार करो और भगवान के धाम में प्रवेश करो।"

Swami Mukundananda

4. ज्ञान कर्म संन्यास योग

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