नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥15॥
न–कभी नहीं; आदत्ते-स्वीकार करना; कस्यचित्-किसी का; पापम्-पाप; न-न तो; च-और; एव-निश्चय ही; सु-कृतम्-पुण्य कर्म; विभुः-सर्वव्यापी भगवान; अज्ञानेन–अज्ञान से; आवृतम्-आच्छादित; ज्ञानम्-ज्ञान; तेन-उससे; मुह्यन्ति-मोह ग्रस्त होते हैं; जन्तवः-जीवगण।
BG 5.15: सर्वव्यापी परमात्मा किसी के पापमय कर्मों या पुण्य कर्मों में स्वयं को लिप्त नहीं करते। किन्तु जीवात्माएँ मोहग्रस्त रहती हैं क्योंकि उनका आत्मिक ज्ञान अज्ञान से आच्छादित रहता है।
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भगवान किसी के पुण्य या पापकर्मों के लिए उत्तरदायी नहीं होते। इस संबंध में भगवान का कार्य केवल तीन प्रकार का है-(1) वे जीवात्मा को कर्म करने की शक्ति प्रदान करते हैं, (2) जैसे ही हम उनसे शक्ति प्राप्त कर कर्म करने लगते हैं तब वे हमारे कर्मों का लेखा जोखा रखते हैं, (3) वे हमें हमारे कर्मों का फल देते हैं। जीवात्मा स्वेच्छानुसार अच्छे या बुरे कर्म करने के लिए स्वतंत्र होती है। भगवान क्रिकेट मैच के निर्णायक (अम्पायर) की भांति कार्य करते हैं। वे केवल परिणाम घोषित करते हैं-'चार रन' 'छः रन' या खिलाड़ी (आउट) खेल से बाहर। निर्णायक के निर्णय के विरुद्ध कुछ नहीं किया जा सकता क्योंकि उसके निर्णय खिलाड़ी के खेल कौशल के अनुसार लिए जाते हैं। अब कोई यह कह सकता है कि भगवान जीवात्मा को इच्छानुसार कर्म करने की स्वतंत्रता क्यों देते हैं। इसका कारण यह है कि आत्मा परमात्मा का अणु अंश है और वह कुछ मात्रा में भगवान के गुणों से सम्पन्न होती है और भगवान 'अभिज्ञ-स्वराट्' परम स्वतंत्र हैं। इसलिए जीवात्मा अपनी इच्छानुरूप इन्द्रिय, मन और बुद्धि का प्रयोग करने में अल्प रूप से स्वतंत्र होती है। इसके अतिरिक्त स्वतंत्र इच्छा के बिना प्रेम नहीं हो सकता। मशीन प्रेम नहीं कर सकती क्योंकि उसके पास चयन करने की स्वतंत्रता नहीं होती। केवल प्राणियों में ही प्रेम करने के विकल्प को चुनने की योग्यता होती है क्योंकि भगवान ने हमारी रचना उनसे प्रेम करने के लिए की है इसलिए उन्होंने हमें स्वतंत्र इच्छा प्रदान की है। अतः हमें अपनी इच्छानुसार किए गए कार्यो के शुभ और अशुभ परिणामों के लिए भगवान को दोषी नहीं ठहराना चाहिए।
कुछ जीवात्माएँ जो यह नहीं जानती हैं कि वे अपने कर्मों का चयन करने के लिए स्वयं स्वतंत्र हैं वे अपनी सभी भूलों के लिए भगवान को उत्तरदायी ठहराती हैं। अन्य जीवात्माएँ यह अनुभव करती हैं कि वे कर्म करने की स्वतंत्र इच्छा से युक्त हैं लेकिन फिर भी वे शरीर होने की धारणा के कारण कर्त्तापन के अभिमान को प्रश्रय देती हैं। यह पुनः अज्ञानता का सूचक है।
श्रीकृष्ण अगले श्लोक में यह व्याख्या करेंगे कि इस अज्ञानता को कैसे मिटाया जा सकता है।