न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥20॥
न–कभी नहीं; प्रहृष्येत्-हर्षित होना; प्रियम्-परम सुखदः प्राप्य प्राप्त करके; न-नहीं; उद्विजेत्–विचलित होना; प्राप्य–प्राप्त करके; च-भी; अप्रियम्-दुखद; स्थिरबुद्धिः-दृढ़ बुद्धि, असम्मूढः-पूर्णतया स्थित, संशयरहित; ब्रह्म-वित्-दिव्य ज्ञान का बोध; ब्रह्मणि-भगवान में; स्थित:-स्थित।
BG 5.20: परमात्मा में स्थित होकर, दिव्य ज्ञान में दृढ़ विश्वास धारण कर और मोह रहित होकर वे सुखद पदार्थ पाकर न तो हर्षित होते हैं और न ही अप्रिय स्थिति में दुःखी होते हैं।
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इस श्लोक का यह अंश 'न तो सुख में प्रसन्न होना और न ही दुःख में शोक करना' बौद्ध धर्म की साधना पद्धति विपस्सना का सर्वोत्तम ध्येय है। अंततोगत्वा समदृष्टि की ओर अग्रसर करने वाली इस शुद्धता अभ्यास की अवस्था प्राप्त करने के लिए कठोर प्रशिक्षण करना आवश्यक है। किन्तु जब हम भगवान को अपनी सभी इच्छाएँ समर्पित कर देते हैं तब यही समान अवस्था स्वाभाविक रूप से प्राप्त हो जाती है। श्लोक 5.17 के अनुसार यदि हम अपनी इच्छाओं को भगवान की इच्छा से जोड देते हैं तब सुख और दुःख दोनों को उसकी कृपा मानकर सहर्ष स्वीकार किया जा सकता है। इस सिद्धांत से संबंधित एक सुन्दर कथा इस प्रकार है-एक बार एक जंगली घोड़ा किसी किसान के खेत में आ गया। लोगों ने उस किसान को उसके भाग्य के लिए बधाई दी। किसान ने कहा- “सौभाग्य और दुर्भाग्य के बारे में कौन जानता है। यह सब भगवान की इच्छा है।" कुछ समय पश्चात् वह घोड़ा वापिस जंगल में चला गया। उसके पड़ोसी इसे दुर्भाग्य बताते हुए उसे सांत्वना देने लगे। बुद्धिमान किसान ने उत्तर देते हुए कहा-“दुःख और सुख केवल भगवान की इच्छा के अनुसार मिलता है।"कुछ दिन व्यतीत होने पर वह घोड़ा 20 अन्य जंगली घोड़ों के साथ वापस आ गया। लोगों ने किसान को फिर उसके सौभाग्य के लिए बधाई दी। किसान ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा-“सौभाग्य और दुर्भाग्य क्या है? यह सब भगवान की इच्छा पर निर्भर है।" कुछ दिनों बाद घोड़े पर सवारी करते हुए किसान के पुत्र की टांग टूट गयी। लोगों ने इस पर अपना शोक व्यक्त किया लेकिन किसान ने फिर भी यह उत्तर दिया-"दुःख और सुख केवल भगवान की इच्छा है।" इसके पश्चात् एक दिन राजा के सैनिक शीघ्र होने वाले युद्ध के लिए नवयुवकों को सेना में भर्ती करने के लिए गांव में आते हैं। किसान के पड़ोस में रहने वाले सभी युवकों को सेना में भर्ती कर लिया जाता है किन्तु किसान के पुत्र को उसकी टूटी टांग के कारण छोड़ दिया जाता है।
दिव्यज्ञान से हमें यह बोध होता है कि हमारा निजी हित केवल भगवान के सुख में निहित है। इसलिए हम अपनी सभी कामनाएँ भगवान को समर्पित कर देते हैं। जब हमारी निजी कामनाएँ भगवान की इच्छा में जुड़ जाती हैं तब किसी मनुष्य में भगवान की कृपा से दुःख और सुख दोनों को एक समान स्वीकार करने की दृष्टि विकसित होती है। समता में स्थित मनुष्य के यही लक्षण हैं।