Bhagavad Gita: Chapter 6, Verse 26

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥26॥

यतः-यत:-जब भी और जहाँ भी; निश्चरति-भटकने लगे; मन:-मन; चञ्चलम्-बेचैन; अस्थिरम्-अस्थिर; ततः-तत:-वहाँ से; नियम्य-हटाकर; एतत्-इस; आत्मनि-भगवान पर; एव-निश्चय ही; वशम्-नियंत्रण; नयेत्-ले आए।

Translation

BG 6.26: जब और जहाँ भी मन बेचैन और अस्थिर होकर भटकने लगे तब उसे वापस लाकर स्थिर करते हुए भगवान की ओर केन्द्रित करना चाहिए।

Commentary

 साधना में सफलता एक ही दिन प्राप्त नहीं की जा सकती। पूर्णता प्राप्त करने का मार्ग दीर्घकालीन और कठिन है। जब हम मन को भगवान पर केन्द्रित करने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ ध्यान में बैठते हैं तब हम पाते हैं कि प्रायः यह सांसारिक संकल्पों और विकल्पों के बीच भटकता रहता है। इसलिए ध्यान प्रक्रिया में सम्मिलित तीन चरणों को समझना आवश्यक है। 

1. बुद्धि की विवेक शक्ति के साथ हम यह निर्णय लेते हैं कि संसार हमारा लक्ष्य नहीं है इसलिए हमें बलपूर्वक मन को संसार से हटा लेना चाहिए। इसके लिए प्रयास करना आवश्यक है।

2. हमें पुनः विवेक शक्ति से युक्त होकर यह समझना चाहिए कि केवल भगवान ही हमारे हैं और भगवद्प्राप्ति हमारा लक्ष्य है। इस प्रकार से हम मन को भगवान में केन्द्रित कर सकते हैं। यह सब प्रयास से ही संभव हो सकता है।

 3. जब मन भगवान से विमुख होकर वापस संसार में भटकने लगता है। तब इसके लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, यह स्वतः हो जाता है। 

जब यह तीसरा चरण स्वतः क्रियान्वयन होता है तब साधक निराश होकर सोचते हैं-'हमने भगवान पर ध्यान लगाने के लिए कड़ा परिश्रम किया किन्तु मन वापस संसार में चला गया।' श्रीकृष्ण हमें निराश न होने का उपदेश देते हैं। वे कहते हैं कि मन चंचल है और हमें यह देखने के लिए तैयार रहना चाहिए कि मन को नियंत्रित करने के हमारे प्रयासों के पश्चात भी यह अपनी आसक्ति के विषयों की दिशा की ओर भटकता है। किन्तु जब यह भटकने लगे तब हमें एक बार पुनः चरण-1 और चरण-2 में दिए गए निर्देशों को दोहराते हुए मन को संसार से हटा कर भगवान में केन्द्रित करना चाहिए। तब फिर हमें एक बार पुनः अनुभव होता है कि तीसरा चरण स्वतः क्रियाशील हो रहा है। ऐसे में हमें पराजित होकर पीछे नहीं हटना चाहिए बल्कि पुनः प्रथम और दूसरे चरण के निर्देशों का पालन करना चाहिए। हमें बार-बार इसका अभ्यास करना होगा। तब धीरे-धीरे मन की भगवान में भक्ति बढ़नी आरम्भ होगी और साथ-साथ संसार की ओर इसकी विरक्ति भी बढ़ेगी। ऐसा होने से मन सुगमता से हमारे वश में हो जाता है और जिससे साधना में ध्यान लगाना सुगम और सहज हो जाता है।

Swami Mukundananda

6. ध्यानयोग

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