सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥31॥
सर्व-भूत-सभी जीवों में स्थित; यः-जो; माम्-मुझको; भजति–आराधना करता है; एकत्वम्-एकीकृत; अस्थितः-विकसित; सर्वथा-सभी प्रकार से; वर्तमान:-करता हुआ; अपि-भी; सः-सह; योगी-योगी; मयि–मुझमें; वर्तते-निवास करता है।
BG 6.31: जो योगी मुझमें एकनिष्ठ हो जाता है और परमात्मा के रूप में सभी प्राणियों में मुझे देखकर श्रद्धापूर्वक मेरी भक्ति करता है, वह सभी प्रकार के कर्म करता हुआ भी केवल मुझमें स्थित हो जाता है।
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भगवान संसार में सर्वत्र सर्वव्यापक है। वे परमात्मा के रूप में सभी के हृदय में निवास करते हैं। अठारहवें अध्याय के 61वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने वर्णन किया है-"मैं सभी प्राणियों के हृदय में निवास करता हूँ।" इस प्रकार से सभी प्राणियों के शरीर में दो ही तत्त्व हैं-आत्मा और परमात्मा ।
1. भौतिक चेतना से युक्त लोग सभी को शरीर के रूप में देखते हैं और जाति, नस्ल, लिंग, आयु और सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर एक-दूसरे से भेदभाव बनाए रखते हैं।
2. उच्च चेतना में युक्त मनुष्य सभी को आत्मा के रूप में देखते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण ने पाँचवे अध्याय के 18वें श्लोक में कहा है कि विद्वान लोग दिव्य ज्ञान की दृष्टि से ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और कुत्ते का मांस भक्षण करने वाले चाण्डाल को समान दृष्टि से देखते
3. दिव्य चेतना युक्त सिद्ध योगी भगवान को परमात्मा के रूप में सब में स्थित देखते हैं। वे संसार का अनुभव भी करते हैं किन्तु उसमें उलझते नहीं। वे हंस के समान होते हैं जो दूध और जल के मिश्रण में से केवल दूध का सेवन करता है व जल को छोड़ देता है।
4. उच्च सिद्धावस्था प्राप्त योगियों को परमहंस कहा जाता है। वे केवल भगवान को देखते हैं और संसार का अनुभव नहीं करते। श्रीमद्भागवद् में किए गए वर्णन के अनुसार महर्षि वेदव्यास के सुपुत्र शुकदेव की अनुभूति परमहंस के स्तर की थीः
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव ।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुस्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ।।
(श्रीमद्भागवत् 1.2.2)
"जब शुकदेव बचपन में ही घर से संन्यास के निकल पड़े उस समय वह ऐसी परम सिद्धावस्था में थे कि उन्हें संसार का बोध नहीं था। उन्होंने सरोवर में नग्न होकर स्नान कर रही सुन्दर स्त्रियों की ओर ध्यान नहीं दिया जबकि वह वहाँ से निकल कर गये थे। उन्होंने केवल भगवान की ही अनुभूति को भगवान के बारे में ही सुना और भगवान का ही चिन्तन किया।" इस श्लोक में श्रीकृष्ण पूर्ण सिद्ध योगी की चर्चा कर रहे हैं जो तीसरे और चौथे चरण से ऊपर के स्तर की अनुभूति है।