त्रैविद्या माँ सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥20॥
त्रै-विद्या:-वैदिक कर्म काण्ड की विधियाँ; माम्-मुझको; सोम-पा:-सोम रस का सेवन करने वाले; पूत-पवित्र; पापा:-पापों का; यज्ञैः-यज्ञों द्वारा; इष्ट्वा –आराधना करके; स्व:-गतिम्-स्वर्ग लोक जाने के लिए; प्रार्थयन्ते-प्रार्थना करते हैं; ते–वे; पुण्यम्-पवित्र; सुर-इन्द्र–इन्द्र के; लोकम्-लोक को; अश्नन्ति–भोग करते हैं; दिव्यान्–दैवी; दिवि-स्वर्ग में; देव-भोगान्–देवताओं के सुख को।
BG 9.20: वे जिनकी रुचि वेदों में वर्णित सकाम कर्मकाण्डों में होती है वे यज्ञों के कर्मकाण्ड द्वारा मेरी आराधना करते हैं। वे यज्ञों के अवशेष सोमरस का सेवन कर पापों से शुद्ध होकर स्वर्ग जाने की इच्छा करते हैं। अपने पुण्य कर्मों के प्रभाव से वे स्वर्ग के राजा इन्द्र के लोक में जाते हैं और स्वर्ग के देवताओं का सुख ऐश्वर्य पाते हैं।
Start your day with a nugget of timeless inspiring wisdom from the Holy Bhagavad Gita delivered straight to your email!
इस अध्याय के पिछले श्लोक 11 और 12 में श्रीकृष्ण ने उन अविश्वासी और आसुरी प्रवृति वाले लोगों की मानसिकता का वर्णन किया जो नास्तिक और आसुरी विचारों को स्वीकार करते हैं और इसके फलस्वरूप परिणाम भी भुगतते हैं। उसके पश्चात उन्होंने महान आत्माओं की प्रकृति का वर्णन किया जो भगवान की प्रेममयी भक्ति में मगन रहती हैं। अब इस और अगले श्लोक में उनका उल्लेख किया गया है जो न तो भक्त हैं और न ही नास्तिक हैं। वे वैदिक कर्मकाण्डों का अनुपालन करते हैं। कर्मकाण्ड की प्रक्रिया को 'त्रिविद्या' कहा जाता है। वे लोग जो 'त्रिविद्या' प्रक्रिया द्वारा मुग्ध होकर यज्ञों या अन्य कर्मकाण्डों द्वारा इन्द्र जैसे देवताओं की पूजा करते हैं वे अप्रत्यक्ष रूप से सर्वात्मा भगवान की पूजा करते हैं क्योंकि उन्हें यह अनुभव नहीं होता कि देवताओं द्वारा प्रदान किए जाने वाले उपहारों की स्वीकृति तो भगवान ही प्रदान करते हैं। धार्मिक कर्मकाण्डों को शुभ कार्य माना जा सकता है लेकिन इनकी गणना भक्ति के रूप में नहीं की जाती। धार्मिक कर्मकाण्डों का अनुपालन करते हुए वे जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्त नहीं हो पाते। वे भौतिक ब्रह्माण्ड के उच्च लोकों जैसे कि स्वर्ग के राजा इन्द्र के इन्द्र लोक में जाते हैं। जहाँ वे स्वर्ग के देवताओं का अत्युत्तम सुख पाते हैं जो पृथ्वी पर मिलने वाले इन्द्रिय सुखों की तुलना में हजारों गुण अधिक होता है। अगले श्लोक में श्रीकृष्ण स्वर्ग के सुखों के दोषों की विवेचना करेंगे।