यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥6॥
यथा-जैसे; आकाश-स्थितः-आकाश में स्थित; नित्यम्-सदैव; वायुः-हवा; सर्वत्र-ग:-सभी जगह प्रवाहित होने वाली; महान शक्तिशाली; तथा उसी प्रकार; सर्वाणि भूतानि सारे प्राणी; मत्स्थानि–मुझमें स्थित; इति–इस प्रकार; उपधारय-जानो।
BG 9.6: यह जान लो कि जिस प्रकार प्रबल वायु प्रत्येक स्थान पर प्रवाहित होती है और आकाश में जाकर स्थित हो जाती है वैसे ही सभी जीव सदैव मुझमें स्थित रहते हैं।
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श्रीकृष्ण ने चौथे श्लोक से छठे श्लोक तक 'मत्स्थानी' शब्द का तीन बार प्रयोग किया है। इसका अर्थ यह है कि सभी प्राणी उनमें स्थित रहते हैं और वे भगवान से विलग नहीं हो सकते, भले ही वे विभिन्न शरीरों में प्रवास करते हैं और संसार के विषयों का भोग करते हैं। यह समझना कठिन है कि संसार भगवान में कैसे स्थित रह सकता है। ग्रीक लोक कथाओं के चित्र में एटलस को ग्लोब उठाए दिखाया गया है। एटलस ने टाइटन्स के साथ ओलम्पस पर्वत के देवताओं के विरुद्ध युद्ध लड़ा था। पराजित होने पर दण्ड के रूप में उसे अपमानित किया गया था और उसे सदा के लिए अपनी पीठ पर एक बड़े स्तंभ के साथ स्वर्ग और पृथ्वी का भार सहन करना पड़ा जो उसके कंधो पर पृथ्वी और स्वर्ग को अलग करता हुआ दिखाई देता है किन्तु यहाँ इसका अभिप्राय श्रीकृष्ण के कथन के अनुसार ऐसा नहीं है कि जब वे यह कहते हैं कि उन्होंने सभी प्राणियों को धारण किया हुआ है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अंतरिक्ष में है और अंतरिक्ष भगवान द्वारा निर्मित ऊर्जा है। इसलिए सभी जीवों को भगवान में स्थित बताया जाता है।
परम प्रभु श्रीकृष्ण अब अर्जुन को इस अवधारणा का बोध करवाने के लिए एक सादृश्य देते हैं। वायु का आकाश से पृथक स्वंतत्र अस्तित्व नहीं है। यह निरंतर प्रचण्ड वेग के साथ प्रवाहित होती है फिर भी आकाश में स्थित रहती है। इसी प्रकार से जीवात्माओं का भगवान से पृथक अस्तित्व नहीं है। वे अनित्य शरीर द्वारा काल, स्थान और चेतनाओं में कभी तीव्रता से और कभी धीरे-धीरे अपनी जीवन यात्रा पूरी करती हैं परन्तु फिर भी वे सदैव भगवान के भीतर स्थित रहती हैं। एक अन्य परिप्रेक्ष्य में ब्रह्माण्ड में व्याप्त सभी अस्तित्व भगवान की इच्छा के अधीन हैं। यह सब उनकी इच्छा के अनुरूप सृजित, पोषित और विनष्ट होते हैं। अतः इस प्रकार से भी कहा जा सकता है कि सब कुछ भगवान में स्थित है।