सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥13॥
सर्व-समस्त; कर्माणि-कर्म; मनसा-मन से; संन्यस्य-त्यागकर; आस्ते-रहता है; सुखम्-सुखी; वशी-आत्म-संयमी; नव-द्वारे-नौ द्वार; पुरे–नगर में; देही-देहधारी जीव; न-नहीं; एव–निश्चय ही; कुर्वन्-कुछ भी करना; न-नहीं; कारयन्–कारण मानना।
BG 5.13: जो देहधारी जीव आत्मनियंत्रित एवं निरासक्त होते हैं, नौ द्वार वाले भौतिक शरीर में भी वे सुखपूर्वक रहते हैं क्योंकि वे स्वयं को कर्त्ता या किसी कार्य का कारण मानने के विचार से मुक्त होते हैं।
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श्रीकृष्ण अब शरीर की तुलना नौ द्वारों वाले नगर से कर रहे हैं। आत्मा नगर के राजा के समान है जिसका शासन अहंकार, बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और प्राणशक्ति द्वारा निमित्त मंत्रालय द्वारा किया जाता है। इनका शरीर पर शासन तब तक चलता है जब तक कि मृत्यु द्वारा इनका नश्वर शरीर छिन नहीं जाता। किन्तु इनका शरीर पर शासन रहते हुए भी सिद्ध योगी स्वयं को न तो शरीर और न ही शरीर के स्वामी के रूप में देखते हैं अपितु वे शरीर और इसमें होने वाली सभी क्रियाओं को भगवान से संबंधित मानते हैं। मन से सभी कर्मों का परित्याग कर वे अपने शरीर में सुखपूर्वक रहते हैं। इसे (साक्षी भाव) या ‘अपने चारों ओर घटित हो रही सभी क्रियाओं का अनासक्त दृष्टा' होने की मनोवृत्ति भी कहा जा सकता है। इस श्लोक की उपमा श्वेताश्वतरोपनिषद् में भी दी गयी है-
नवद्वारे पुरे देही हंसो लेलायते बहिः।
वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च ।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद्-3:18)
"यह शरीर नव द्वारों-दो कान, एक मुख, दो नासिका छिद्र, दो नेत्र, गुदा और लिंग से निर्मित है। भौतिक चेतना से युक्त होकर शरीर में रहने वाली आत्मा स्वयं की पहचान नव द्वारों के नगर के साथ करती है। इस शरीर में परमात्मा भी निवास करते हैं जो संसार के सभी प्राणियों के नियन्ता हैं। जब आत्मा-परमात्मा के साथ अपना संबंध जोड़ती है तब वह शरीर में रहते हुए भी उससे अछूती रहती है।"
पिछले श्लोक में श्रीकृष्ण ने यह बोध कराया कि देहधारी जीवात्मा न तो कर्त्ता है और न ही किसी कार्य का कारण। अब यह प्रश्न सामने आता है कि क्या भगवान ही संसार में सभी कर्मों के वास्तविक कारण हैं? इसका उत्तर अगले प्रश्न में दिया गया है।