श्रीभगवानुवाच।
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥1॥
श्रीभगवानुवाच–परम् भगवान ने कहा; अनाश्रितः-आश्रय न लेकर; कर्मफलं-कर्म-फल; कार्यम्-कर्त्तव्य; कर्म-कार्यः करोति-निष्पादन; यः-वह जो; सः-वह व्यक्ति; संन्यासी-संसार से वैराग्य लेने वाला; च-और; योगी-योगी; च-और; न नहीं; निः-रहित; अग्नि:-आग; न-नहीं; च-भी; अक्रियः-निष्क्रिय।।
BG 6.1: परम प्रभु ने कहा! वे मनुष्य जो कर्मफल की कामना से रहित होकर अपने नियत कर्मों का पालन करते हैं वे वास्तव में संन्यासी और योगी होते हैं, न कि वे जो अग्निहोत्र यज्ञ संपन्न नहीं करते अर्थात अग्नि नहीं जलाते और शारीरिक कर्म नहीं करते।
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वेदों में वर्णित धार्मिक अनुष्ठान की गतिविधियों में अग्नि प्रज्ज्वलित कर यज्ञों को संपन्न करना, जैसे अग्निहोत्र यज्ञ सम्मिलित हैं। संसार का परित्याग करने के लिए और 'संन्यास' की अवस्था में प्रवेश करने वालों के लिए ऐसे नियम हैं कि वे धार्मिक विधि संबंधी गतिविधियों का अनुपालन नहीं करेंगे और वास्तव में खाने पकाने या किसी भी रूप में अग्नि का प्रयोग नहीं करेंगे तथा वे केवल भिक्षा माँग कर जीवन निर्वाह करेंगे। किन्तु इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने यह अभिव्यक्त किया है कि केवल अग्नि यज्ञों का त्याग करने से कोई संन्यासी नहीं बन सकता।
सच्चा योगी और सच्चा संन्यासी कौन है? इस विषय पर अत्यधिक भ्रम है। प्रायः लोग कहते हैं-"यह स्वामी जी फलाहारी हैं इसलिए अवश्य सिद्ध योगी होंगे।" "यह दुग्धारी बाबाजी हैं जो केवल दूध पर निर्भर रहते हैं, अवश्य ही महायोगी की अवस्था को प्राप्त होंगे।" "यह पवनधारी गुरुजी है, जो कुछ ग्रहण नहीं करते इसलिए निश्चित रूप से इन्हें भगवद्प्राप्ति हो चुकी होगी।" "यह साधु नागा बाबा हैं जो कोई वस्त्र धारण नहीं करते और इसलिए यह पूर्ण संन्यासी होंगे।" भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि संन्यास के ऐसे बाहरी लक्षणों को दर्शाने से कोई न तो संन्यासी बन सकता है और न ही योगी। वे ज्ञानी जन जो अपने कर्मफलों का त्याग कर उन्हें भगवान को समर्पित कर देते हैं वही सच्चे संन्यासी या योगी होते हैं।
आजकल पश्चिम जगत में 'योगा' एक रोमांचक शब्द बन गया है। संसार के सभी देशों में कुकुरमुत्ते की भाँति योग संस्थान स्थापित हो रहे हैं। सांख्यिकी के आँकड़े यह दर्शाते हैं कि
अमेरिका के प्रत्येक दस व्यक्तियों में से एक व्यक्ति योग का अभ्यास करता है किन्तु संस्कृत धर्म ग्रंथों में 'योगा' शब्द का वर्णन नहीं किया गया है। अपितु वास्तविक शब्द 'योग' है और इसका अर्थ 'जुड़ना' है, जो मनुष्य की चेतना को दिव्य चेतना के साथ एकीकृत करने का बोध कराता है। अन्य शब्दों में योगी वही है जिसका मन भगवान में पूर्णतया तल्लीन है। यह भी माना जाता है कि ऐसे योगी का मन स्वाभाविक रूप से संसार से विरक्त रहता है इसलिए वास्तविक योगी सच्चा संन्यासी भी होता है।
इस प्रकार जो मनुष्य भगवान की श्रद्धापूर्वक सेवा की भावना से कर्मयोग का अनुसरण करते हुए कामना रहित और फल की इच्छा से रहित होकर कर्म करते हैं चाहे वे गृहस्थी ही क्यों न हों, ऐसे मनुष्य ही वास्तव में सच्चे योगी और वास्तविक संन्यासी होते हैं।